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द्वितीय खंड । .
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अपेक्षा भेद होते हुए भी प्रदेशोंकी अपेक्षा भिन्नता नहीं है-एकता है तब तो हमको भी सम्मत है क्योकि द्रव्यका ऐसा ही स्वरूप है। इस अवसर पर बौद्धमतके अनुसार कहनेवाला तर्क करता है कि ऐसा मानना चाहिये कि सिद्ध पर्यायकी सत्तारूपसे द्रव्य उपचारमात्रं है, मुख्यतासे नहीं है ? इसका समाधान आचार्य करते हैंकि यदि सिद्ध पर्यायका उपादान कारणरूप परमात्म द्रव्यका अभाव होगा तो सिद्ध पर्यायकी सत्ता ही नहीं संभव है। जैसे वृक्षके विना फलका होना सम्भव नहीं है।
इसी प्रस्तावमें नेयायिक मतके अनुसार कहनेवाला कहता है कि परमात्मा' द्रव्य है कितु वह सत्तासे भिन्न रहता है, पीछे सत्ताके समवाय ( संबन्ध ) से वह सत् होता है। आचार्य इस शंकाका भी समाधान करते हैं । पूछते हैं कि सत्ताके समवायके पूर्व द्रव्य सत् है या असत् है ? यदि सत् है तो सत्ताका समवाय वृथा है क्योकि द्रव्य पहले से ही अपने अस्तित्वमें है ? यदि सत्ताके समवायसे पहले द्रव्य नहीं था तब आकाश पुप्पकी तरह नं विद्यमान होते हुए द्रव्यके साथ किस तरह सत्ताका समवाय होगा ? यदि कहो कि सत्ताका समवाय हो जावेगा तब फिर आकाश पुष्पके साथ भी सत्ताका समवाय हो जावेगा, परन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। इसलिए अगेद नयसे शुद्ध खरूपकी सत्तारूप ही परमात्म द्रव्य है जसे यहां परमात्म द्रव्यके साथ शुद्ध चेतना स्वरूप सत्ताका अभेद व्याख्यान किया गया तैसे ही सर्व चेतन द्रव्योंका अपनी२ सत्तासे' अभेद व्याख्यान करना चाहिये। ऐसे ही अचेतन द्रव्योंका अपनीर सतासे अभेद है ऐसा समझना चाहिये।