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________________ २०४] श्रीप्रवचनसारaai | नहीं होता । व्यवहारकी अपेक्षा असंख्यात प्रदेशोंकी कल्पना प्रयोजनभूत है । प्रदेशका स्वरूप श्री नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवर्तीने भी यही कहा है : जानदेय आयासं अविभागी पुग्गलावद्धं । त खु पदेस जाणे सत्यागृहाणदाणरिह || भावार्थ - जितने आकाशको अविभागी पुद्गल परमाणु रोकता "है वह प्रदेश है । उसमे सर्व परमाणुओको स्थान देनेकी सामर्थ्य है । ऐसा वस्तुका स्वरूप जानकर जगतके नाटकसे उदासीन रहकर निज आत्मतत्त्वके अनुभवमें अपनी परिणतिको तन्मय करना चाहिये । उत्थानिका- आगे तिर्थक प्रचय और ऊर्ध्व प्रचयका निरू'पण करते हैं एको व दुगे बहुगा संखातीदा तदो अनंता य । दव्वाणं च पसा संति हि समयत्ति कालस्स ॥ ५१ ॥ एकशे वा द्वौ बहवः सख्यातीतस्ततोऽनन्ताश्च । द्रव्याणा च प्रदेशाः सन्ति हि समया इति वालस्य ॥५१॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - ( दव्वाणं पदेसा ) काल द्रव्यके विना पांच द्रव्योके प्रदेश (एको व दुगे च बहुगा संख्यातीदा तदो अणता य संति) एक या दो या बहुत, या असंख्यात तथा अनन्त यथायोग्य होते हैं (कालस हि समयत्ति ) परन्तु निश्चयसे एक "प्रदेशी काल द्रव्यके समय एकसे अनन्त तक होते हैं । विशेषार्थ - मुक्तात्मा पदार्थ में एकाकार व परम समता रसके भावमें परिणमनरूप परमानन्दमई एक लक्षण सुखामृत से भरे हुए
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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