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________________ [ २०५ और केवलज्ञानादि प्रगटरूप अनन्त गुणोके आधारभूत, लोकाकाशप्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेशोका जो प्रचय या समूह या समुदाय या राशि है उसको तिर्यक् प्रचय, तिर्यक सामान्य, विस्तार सामान्य या अक्रम अनेकान्त कहते है । यह प्रदेशोका समुदायरूप तिर्यक् प्रचय जैसे मुक्तात्मा द्रव्यमें कहा गया है तैसे कालको छोडकर अन्य द्रव्योंमें अपने अपने प्रदेशोकी संख्या के अनुमार यिक् प्रचय होता है ऐसा कथन समझना चाहिये । तथा समय समय वर्तनेवाली पूर्व और उत्तर पर्यायोकी सन्तानको ऊर्ध्व 'प्रचय, ऊर्ध्व सामान्य, आयत सामान्य या क्रम अनेकान्त द्वितीय खंड | " कहते है । जैसे मोतीकी मालाके मोतियोको क्रमसे गिना जाता है { इसी तरह द्रव्यकी समय २ मे होनेवाली पर्यायाको क्रमसे गिना जाता है । इन पर्यायोके समूहको ऊर्ध्व सामान्य कहते है । यह सत्र द्रव्योमे होता है । किन्तु कालके सिवाय पाच द्रव्योकी पूर्व उत्तर पर्यायों का सन्तान रूप जो ऊर्ध्व प्रचय है उसका उपादान कारण त अपना अपना द्रव्य है परंतु कालद्रव्य उनके लिये प्रति समयमे सहकारी कारण है । परतु जो कालद्रव्यका समय सन्तान रूप ऊर्ध्व प्रचय है उसका काल ही उपादान कारण है और काल ही सहकारी कारण है । क्योकि कालसे भिन्न कोई और समय नहीं है । कालकी जो पर्यायें है वे ही समय है ऐसा अभिप्राय है । भावार्थ - एक समयमे ही विना क्रमके अनेक प्रदेशोके समूहका बोध करानेवाला विस्तार तिर्यक् प्रचय है । अनत समयोमे क्रमसे होनेवाली पर्यायोकी राशिका बोध करानेवाला ऊर्ध्व प्रच है । जैसे एक मैदान है और एक सीढ़ी है। मैदानकी चौड़ाई 1
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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