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________________ द्वितीय खंड। भावार्थ-इस गाथामें इस बातको स्पष्ट किया गया है कि द्रव्य गुण पर्याय मय है। द्रव्यमे ही गुण होते हैं और द्रव्यमें ही ' पर्यायें होती है। गुण और पर्यायें द्रव्यको छोडकर स्वतंत्र नहीं हो सक्ते । वास्तवमे अनेक गुणोंका अखंड समुदाय द्रव्य है अर्थात् द्रव्यमे जितने गुण हैं वे सब द्रव्यके सर्व प्रदेशोमे व्यापक हैं। उन सर्व गुणोंके ऐसे समूहको द्रव्य कहते है । गुणोमें जो समय समय उत्पाद व्यय होता है इससे पर्यायें होती और नष्ट होती हैं-ये पर्यायें गुणोके ही विकार है। जब गुण द्रव्यमें ही पाए जाते है तब उन गुणोकी पर्यायें भी द्रव्यमें ही पाई जाती है । जो द्रव्यके प्रदेश हैं वे ही गुणोंके प्रदेश तथा वे ही पर्यायोके प्रदेश हैं। एक आम्रफलमे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण हैं उनकी चिकनी, मीठी, सुगंधित तथा पीत अवस्था पर्यायें है अथवा आम्रका छोटेसे बड़ा होना पर्याय है। ये गुण पर्यायें आम्र द्रव्यमें ही होती हैं । सुवर्णमें पीतपना भारीपना आदि गुण तथा उसकी कुडल व मुद्रिका आदि पर्यायें सुवर्णके बिना नही होसक्ती है । आत्मामें चेतना, आनन्द, वीर्य, सम्यक्त, चारित्र गुण तथा अशुद्ध या शुद्ध पर्यायें आत्मा विना नहीं होसक्ते हैं । इस तरह यह बात सिद्ध है कि हरएक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंसे अभेद है-ऐसा गुण पर्यायवान द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप है । क्योकि पर्यायें क्षण क्षणमें नष्ट होकर नवीन पदा होती रहती है और गुण सहभावी है-सदा ही द्रव्यमें नित्य या ध्रौव्य रहते हैं इसलिये द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप है । तथा जिसमे उत्पाद व्यय ध्रौव्य होता है उसीको सत या सत्तारूप कहते हैं इसलिये द्रव्य स्वयं
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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