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________________ २३०] श्रीप्रवचनसारंटीको। कभी अन्य प्राणी बच जाते हैं तथापि इस हिसकका हिसाभाव अवश्य ज्ञानावरणादि आठ कोक बंधका कारण होता है। जैसे हम यदि दूसरेके मारनेको गमे लोहा हाथमें उठावें तो उसके पास पहुंचनेके पहले हमारा हाथ तो अवश्य जले हीगा। दूसरेके पास हम फेंक सके व उसको लग ही जावे इसका कोई नियम नहीं है वैसे जब हम प्राणोके कारण हिसात्मक भाव करेंगे तब दूसरेकी हिसा हो व न हो, हम तो अवश्य हिंसाके भावोसे कर्मबन्ध करलेंगे। कर्मवन्धमें कारण जीव और अजीव दोनोंका आधार है। जीवका आधार उसके कषायसहित रुत, कारित वा अनुमोदनरूप मन्न वचन कायके व्यापाररूप संरंभ अर्थात् संकल्प, समारम्भ अर्थात् प्रबन्ध, आरम्भ अर्थात् कार्यमें परिणमन करते हुए योग और उपयोग हैं । अनीव अधिकरण शरीर, वचन, मनकी क्रियाएं व इंद्रियोका वर्तन आदि है । जैसा आधार होगा व अपनी शक्ति होगी उसके अनुसार कर्माका तीव्र या मठ बन्ध हो जायेगा। इसीसे यहां सिद्ध किया गया है कि इस संसारी जीवके आयु आदि प्राणोंका सम्बन्ध कर्मबन्धका कारण है अतएव इनका सम्बन्ध त्यागने योग्य है। हिसक भाव पहले अपना बिगाड़ करता है इस सम्बन्धमें स्वामी अमृतचंद्र आचार्यने पुरुषार्थसिद्धियुपायमे अच्छा कहा है यत्खलु व पाययोगात्प्राणाना द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीना भन्त्यहिंसेति । वेषामेवोत्पत्तिहिसे ति जिनागमस्य सक्षेपः ॥ ४४ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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