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द्वितीय खंड।
[२३१ युक्ताचरणश सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥ ४५ ॥ व्युत्यानापखामा गगादीना वशमवृत्तायाम् । निता जोनो मा या धावत्यो ध्रुव हिंसा || ४६ ॥ यस्मात्सक यायः सन टन्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चानागत न वा हिंमा प्राण्य-तगगा तु ॥ ४७ ।।
भाव यह है-कपायरूप मन, वचन, कायके योगोके द्वारा द्रव्य और भाव प्राणोको पीडित करना निश्चयसे हिसा है। अपने भावोमे रागादिभावोका प्रगट न होना ही अहिसा है तथा उनहीका पैदा हो जाना ही हिमा है, यह निनमतका सार है। रागद्वेपके विना योग्य आचरण करते हुए मात्र अन्य प्राणियोके प्राण घात होजानेसे फभी भी दिसाका दोप नहीं होता है। इसीके विपरीत नत्र प्रमादके द्वारा राग आदिके वश प्रवृत्ति की जायगी तब इस व्यापारसे कोई जीव मरो या न मरो हिंसा निश्चयसे होती रहती है, क्योकि कपायके आधीन होकर यह जीव पहले ही अपनेसे ही अपने आत्माकी हिसा करता है फिर दूसरे प्राणियोके प्राणोकी हिसा होय भी व न भी होय, नियम नहीं है। प्रयोजन यह है कि इस जीवके मोह रागद्वेषरूप भाव ही हिसक परिणाम हैं। जो भाव इन गरीर आदि प्राणोके निमित्तको पाकर हो जाते हैं, इन परिणामोसे ही कर्म पुगलोका बन्ध होता है जिस वधके कारण संसारमें जन्ममरणादि दुःखोको उठाता हुआ यह जीव भ्रमण करता है और स्वाधीन आत्मानन्दरूप मोक्षका लाभ नहीं कर सक्ता है इसलिये इन शरीरादि प्राणोका सम्बन्ध त्यागने योग्य है और