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________________ २३२ ] श्रtraचनसारीका | CARMAIN IN . Mera Vadan for ज्ञानचेतनारूप प्राण ग्रहण करने योग्य है-यही दिन दिनका साधन है ॥ ६० ॥ स्थानिक आगे इंद्रिय आदि माणकी उत्पतिका अंतरंग कारण उपदेश करते है- आदा कम्मममम श्रादि गाणी पृणी पुणी अण्णी । जदि जात्र मम हामि ॥ ६६ ॥ श्रात्मा मन्दीant श्राम्यति प्राणान, पुनः पुनग्न्यान | न] अधीन याम्यमचं देव || ६१ ॥ अन्य महित मामान्यार्थ (म्ममममी) मला (आदा) आत्मा (पुणी गुणी ) बार बार (अणी पाणे ) अन्य २ नवीन प्राणांक ( धारदि ) धारण करता रहता है। (नाव) नव तक (nearing fry ) शुगर आदि farain (ममतं ण जहदि ) ममताको नहीं छोड़ना है । विशेषार्थ:--जो आत्मा स्वगाव भाव, फर्म और arrier dea etc कारण अत्यन्त निर्म है तोनी व्यवहार नयमे अनादि कhasha होा है। ऐसा होता हुआ यह आत्मा समय तक बार बार इन आशु आदि प्राणीको प्रत्येक नवीन नवीन धारना कहता है जिस समय नक यह शरीर व इंद्रिय विषय रहित परमनन्यमटे प्रकाशकी परिणति विपरीत देह आदि पंचेद्रियकि विषयोग स्नेह रहिन चैतन्य चमत्कारी परिणति विपरीत ममताकी नहीं त्यागता है। इससे यह मिन्ह हुआ कि इंद्रिय आदि प्राणांकी उत्पत्तिका अंतरंग कारण देह आदिमत्त्व करना ही है ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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