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द्वितीय खंड । [२ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने वतलाया है कि इस संसारी जीवके संसारमे भ्रमण करते हुए नो वारवार प्राणोंका धारण प्रत्येक नएर शरीरमें जाकर होता है उसका अन्तरंग कारण शरीर आदिमें मोह-ममत्त्व है। हरएक संमारी आत्मा अनादिकालसे ही प्रवाहरूपसे कोसे बन्धा चला आरहा है-उन कोंके उदयसे एक गतिको छोड़कर दूसरी गतिमें जाता है । जहा जाता है वहां जो शरीर व एक या दो या तीन या चार या पांच इद्रिये प्राप्त होती है उनहीके विषयभोगोंकी चाहनामें पडकर उस शरीरसे अत्यन्त रागी हो जाता है, जन्मभर इसी रागभावकी पूर्तिकी चेष्टा किया करता है, इच्छाके अनुसार भोग सामग्रीको पानेका उद्यम करके उनको एकत्र किया करता है। इसी ही उद्यममें एक क्षणमे आयु समाप्त होनेपर शरीर छोडता है और जैसी आयु वाधी होती है उसके अनुसार दूसरे गरीरमें पहुंच जाता है। वहां भी इसी तरह शरीरके विषयोमें फस जाता है । मोह या ममताभाव जवतक बना रहता है तबतक संसारके पार पहुंचनेका मार्ग ही नहीं मिलता है। वश मोही जीव यदि ममत्त्वको न त्यागे तो अनन्त कालतक भ्रमण ही करता रहेगा।
और जब कभी भी श्री गुरुके सम्यक् उपदेशसे ससार शरीरभोगोंको असार जानकर इनसे मोह त्याग अपनी शुद्ध परिणतिमे प्रेम करेगा तब ही इसकी ममताकी टोरी टूट नायगी । वस मिथ्यात्व भावके जाते ही इसका ससारका पार निकट आ जायगा-थोडे ही कालमें शरीर रहित हो मुक्त हो जायगा । श्री पूज्यपाद स्वामीने " समाधिशतक " में कहा भी है
देहान्तरगतेज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । वीज विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥