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________________ २३४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । भावार्थ-इस देहमें आत्मापनेकी भावना करनी कि जो शरीर है सो मैं हूं, जो मैं हूं सो शरीर है यही ममत्त्व अन्य अन्य देह धारण करनेका कारण है जब कि आत्मामे ही आत्मापनेकी भावना करनी शरीर रहित होनेका कारण है। स्वामी अमितिगतिमहाराज बृहत सामायिकपाठमें कहते हैं माग मे मम गेहिनी मम गृहं मे बांधवा मेंऽगजास्तातो मे मम संपदो मम सुखं मे सजना मे जनाः ॥ इत्यं घोरममत्वतामसवशव्यस्तावबोधस्थितिः । शर्माधानविधानतः स्वहिततः प्राणी सनीश्रस्यते ॥ २५॥ भावार्थ-मेरी माता है, मेरी स्त्री है, मेरा घर है, मेरे भाई हैं, मेरा पुत्र है, मेरा पिता है, मेरा धन दौलत है, मेरा सुख है, मेरे सजन हैं, मेरे आदमी हैं इस तरह घोर ममतारूप अंधेरेके वशसे ज्ञानकी अवस्था जिसकी बंदसी होगई है ऐसा प्राणी सुख प्राप्तिके कारणरूप अपने हितसे दूर रहता है। और भी कहते है कि जबतक जैन बचनोंमें नहीं रमता है तब तक ममताकी डोरी नहीं टूटती है:कारियामोद कृतमिदमिदं कृन्यमधुना, क्रोमीति व्यग्र नयसि सकल कालमफलं । सदा रागद्वेषप्रचयगपरं स्वार्थविमुख, न जैनेऽविकृत्त्वे वचसि रमसे निवृतिकरे ॥५७ ॥ भावार्थ-मै ऐसा करूंगा, मैने ऐसा किया है, मै अब ऐसा करता हूं इस तरह आकुलतामें पडाहुआ तू अपना सर्व जीवनकाल निर्फल खोदता है तथा सदा अपनें आत्माके कल्याणसे विमुख ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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