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• द्वितीय खंड। - [२३६ होकर रागद्वेषके भीतर पड़ा रहता है और मुक्तिके कारण विकार रहित जिनेन्द्रके वचनोमें नहीं रमन करता है।
इस तरह जबतक ममता है तबतक ससार है, ऐसा मानकर तथा इन शरीर आदि प्राणोको पुदलजनित व ससारके दुःखोके व भ्रमणके कारण जानकर इनसे ममता छोडकर अपने ही शुद्ध आत्मखरूपमें रत होकर साम्यभावरूप चारित्रमें तिष्ठकर निजानंदका लाभ करना चाहिये, यह तात्पर्य है ।। ६१ ॥
उत्थानिका-आगे इद्रिय आदि प्राणोके अन्तरंग नाशके कारणको प्रगट करते है
जो इदियादिविजई भवोय उवओगमप्पगं झादि । कम्मेहि सो ण रंजदि किह तं पाणा अणुचरंति ॥६॥ य इद्रयादिविजयी भूत्वोपयोगम त्मक ध्यायति । कर्म,मे: स न रज्यते कथ त प्राणा अनुचरन्ति ॥६२॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ -(जो) जो कोई (इदियादि विनयी) इद्रिय आदिका जीतनेवाला ((भवीय) होकर ( उव
ओगम् ) उपयोगमई ( अप्पग ) आत्माको ( झादि) ध्याता है। (सो) सो जीव (कम्मेहि) कर्मोसे (ण रंजदि) नही रगता है अर्थात नही बघता है (किह) तव किस तरह (पाणा) प्राण (तं) उस जीवको ( अणुचरंनि ) आश्रय करेंगे ।
विशेषार्थ:-जो कोई भव्य जीव अतीन्द्रिय आत्मासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतमें सतोषके बलसे नितेन्द्रिय होकर तथा कषाय रहित निर्मल आत्मानुभवके वलसे कषायको जीतकर केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोगमई अपनी ही आत्माको ध्याता हैं वह चैतन्य