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________________ २३ ] श्रीप्रवचनसारटोका । चमत्कारमई आत्माके गुणोंके विघ्न करनेवाले ज्ञानावरण आदि - कर्मोंसे नहीं बंधता है । कर्मबंधके न होनेपर ये इंद्रियादि द्रव्यप्राण किस तरह उस जीवका आश्रय करसक्ते हैं ? अर्थात् किसी भी तरह आश्रय नही करेंगे। इसीसे जाना जाता है कि कषाय और इंद्रिय विषयोंका जीतना ही पंचेन्द्रिय आदि प्राणोंके विनाशका कारण है । 1 भावार्थ - यहां आचार्यने वह उपाय बताया है जिस उपायसे शरीर और उसके अंग इन्द्रियादि न प्राप्त हो । शरीर धारनेका - मूल कारण गति, आयु आदि कर्मोंका उदय है । कर्मका उदय - कमौके बंध विना नहीं होसक्ता । कर्मोंका बंध इंद्रियोके विषयोंमें आशक्ति करने तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों में परि मन करने और निज आत्माकी अश्रद्धा होनेसे होता है । इसलिये जो यह चाहते हैं कि शरीर और इंद्रियों का सम्बन्ध न हो और यह आत्मा अपने निज अमूर्तिक स्वभावमें ही अनन्तकाल विश्राम करता हुआ निज आनन्दका स्वाधीनपने भोग करे उनको उचित है कि निज आत्माके शुद्ध ज्ञानानंदमई स्वभावकी दृढ़ 'प्रतीति करके अपनी इन्द्रियोंकी आशक्तिको छोड़कर उनको अपने वश करें तथा क्रोधादि कषायोंको जीतकर शांतभावका आश्रय करें और निश्चल चित्त हो अपने ही शुद्ध ज्ञानदर्शनमई आत्माका - ध्यान करके अनुभव करें और आनन्दामृतका पान करें - वश, वीतराग परिणामोंगे परिणमन करनेसे कर्मका बन्ध न होगा । जब बन्ध न होगा तब उदय कहांसे होगा ? उदय विना शरीर तथा प्राणोका धारण न होगा । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राणरहित होनेका
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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