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________________ द्वितीय खंड। [२३७ उपाय नितेंद्रिय होकर निज शुद्ध आत्माका अनुभव है। ऐसा ही श्री अमृतचन्द्राचार्यने समयसारकलशमें कहा है: ये ज्ञानमात्रनिजभावमयीमकम्पा, __ भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः । ते साधकत्वमधिगम्य भवति सिद्धाः, ____ मुढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥ २० ॥ भावार्थ-किसी भी तरह मोहको हटाकर जो निश्चल ज्ञानमई. आत्मीक भावकी भूमिका आश्रय करते है वे मुक्ति के साधकपनेको पाकर सिद्ध हो जाते है । जो मिथ्यादृष्टी मूर्ख है वे इस भूमिको न पाकर संसारमें भ्रमण करते है श्री अमितिगति महारान सामायिकपाठमे कहते हैसरिभकपापसगारित शुद्धोपयोगोधतं, तद्रप परमात्मनो विकलिक बायव्यपेक्षाऽतिग । तनिःश्रेयमारणाय हृदथे कार्य मदा नापर, कृत्य कारि चिकीर्ष वो न सुधियः कुर्वति तद्वसकं ॥७॥ भावार्थ-जो परमात्माका स्वभाव सर्व आरम्भ व कपाय या परिग्रहसे रहित है, शुद्धोपयोगमें लीन है, कर्म रहित है, बाहरी पदार्थोके आलम्बसे शून्य है उसी स्वभावको मुक्तिके लाभके लिये अपने हृदयमें सदा ध्याना चाहिये, अन्य किसीको नहीं । जो संसारके वन्धको मेटना चाहते है वे बुद्धिमान इस निन शुद्ध स्वभावके नाशक किसी भी कामको कभी भी नहीं करते हैं। ऐसा जानकर शरीरके त्यागके लिये शरीरका मोह छोडकर निज शुद्ध आत्माका एक ध्यान ही कार्यकारी है ऐसा निश्चय करना चाहिये यह तात्पर्य है ॥ ६३ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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