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द्वितीय खंड ।
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कौके साथ बंध होता है जो बंध अपने आत्माकी प्राप्तिरूप मोक्षसे विपरीत है तथा मूल और उत्तरप्रकृतियोंके भेदसे अनेक रूप है। इससे जाना गया कि प्राण पुद्गल कर्मबंधके कारण होते हैं। यहां यह भाव है कि जैसे कोई पुरुष दूसरेको मारनेकी इच्छासे. गर्म लोहेके पिंडको उठाता हुआ पहले अपनेको ही कष्ट दे लेता है फिर अन्यका घात हो सके इसका कोई नियम नहीं है तैसे यह अज्ञानी जीव भी तप्त लोहेके स्थानमें मोहादि परिणामोंसे परिणमन करता हुआ पहले अपने ही निर्विकार खसंवेदन ज्ञानस्वरूप शुद्ध प्राणको घातता है उसके पीछे दूसरेके प्राणोंका घात हो वन हो ऐसा कोई नियम नहीं है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि मन वचन काय व स्पर्शन आदि इंद्रियोंके द्वारा व्यापार करता हुआ यह संसारी जीव जब रागद्वेष मोह भावोंसे परिणमन करता है तब यह हिंसक हो जाता है। यह बात भी ठीक ही है कि बुद्धिपूर्वक इन प्राणोंसे काम लेते हुए इच्छा अवश्य होती है जो रागका अंग है। यह मोह राग या द्वेष जब जब थोडे या बहुत आत्माके परिणाममें झलकेंगे उसी समय आत्माके स्वाभाविक वीतराग ज्ञानभाव रूप भाव प्राणका और कुछ अंशमें शरीर बल आदि द्रव्य प्राणोका घात करेंगे। इसलिये इच्छापूर्वक इन प्राणोका व्यापार अपना घात करता है। इतना ही नही वह भाव यदि परकी हिंसारूप होता है तो एकेन्द्रिय आदि अन्य जीवोंके कष्ट पहुंचानेके व्यापारमे लगा हुआ अन्य जीवोको भी पीड़ा पहुंचाता है-अन्य जीवोके भाव और द्रय प्रागों का घात करता है। इस हिंसककी चेठा होनेपर भी कभी