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________________ ફૅર૮ ] श्रीप्रवचनसारटोका । स्वबुद्धधा यावद्गृह्णीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ ६२ ॥ भावार्थ - जबतक मन वचन काय तीनोंको आत्माकी बुद्धिसे मानता रहेगा तबतक इस जीवके संसार है। जब इन तीनोंसे मैं भिन्न हूं ऐसी भेद, भावना करेगा तब ही मोक्षको प्राप्त कर सकेगा। मैं एक शुद्ध ज्ञान चेतनारूप प्राणका धारी हूं ऐसा ही अनुभवउन कर्मोंसे छुडानेवाला है जिनके उदयसे यह जीव पुनः पुनः प्राणोंको पाकर कष्ट पाता है ॥ १९ ॥ उत्थानिका- आगे प्राण नवीन कर्म पुद्गलके बन्धके कारण, होते हैं इसी ही पूर्वोक्त कथन को विशेषतासे कहते हैं:पाणावाधं जीवो मोहपदेसेहि कुणदि जीवाणं । दि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादिकम्महि ॥६०॥ प्राण बाधे ज वो मोहप्रद्वेषाभ्या करोति जीवयोः । यदि सति हि बन्धो जनावरणादिकर्मभिः ॥ ६० ॥ अन्वयसहित सामान्पार्थ -: (जदि) जब ( जीवो) यह जीव (मोहपदेसेहि) मोह और द्वेषके कारण . ( जीवाणां पाणाबाधं ) अपने और पर जीवोके प्राणोको बाधा (कुणदि) पहुंचाता है तब (हि) निश्चयसे इसके ( सो बधो ) वह बन्ध ( णाणावरणादिकम्मे हि ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंसे (हवदि) होता है। विशेषार्थ - जब यह जीव सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानरूपी दीपक मोहके अधकारको विनाश करनेवाले परमात्मासे विपरीत मोहभाव और द्वेषभावसे परिणमन करके अपने भाव और द्रव्य प्राणोको घातता हुआ एकेन्द्रिय आदि जीवोंके भाव और आयु · आदि द्रव्य प्राणोको पीड़ा पहुचाता है तब इसका ज्ञानावरणादि
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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