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द्वितीय खंड।
[२२५ रखता है वही परम समाधिसे उत्पन्न जो नित्यानन्दमई एक सुखामृतका भोजन उसको न भोगता हुआ इन इंद्रियादि प्राणोंसे कड़वे विषके समान ही कोके फलरूप सुख दुखको भोगता है और वही जीव कर्मफल भोगता हुआ कर्म रहित आत्मासे विपरीत अन्य नवीन कर्मोसे बंध जाता है इसीसे जाना जाता है कि ये प्राण नवीन पुद्गल कर्मके कारण भी हैं।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रीतिसे यह दिखलाया है कि जिन शरीर, वचन, मनकी क्रियाओंमें और इद्रियोंके विषयभोगमें यह ससारी जीव लुब्ध हो रहा है वे सब मन वचन काय और इंद्रिय रूपी प्राण तथा आयु और शासोच्छ्वासपूर्व बद्ध कोके फलसे पैदा होते हैं। जिन शुद्धात्माओके शरीर ही नहीं होते वहां ये प्राण नहीं पाये जाते है इसीसे प्रमाणित है कि ये कर्मबद्ध जीवमें कर्मोंके उदयसे पैदा होते है। पुद्गलमई ये प्राण है इसलिये इनका कारण भी कर्मपुद्गल है । इन पुलमई शरीरादि
और इद्रियोके द्वारा यह नीव पुद्गलकर्मोके उदयसे प्राप्त ससारीक पराधीन सुखदुःखको भोगता रहता है। पुद्गलीक प्राणोसे ही पुद्गलीक भोग होता है । भोगोके भोगमें रागद्वेष करता हुआ जीव फिर नवीन पुद्गलकर्मोको बांध लेता है। सिद्ध यह किया गया है कि ये प्राण पुद्गलके कारणसे उपजे हैं व पुद्गलकों ही भोगते हैं नथा पुद्गल कर्मोको उपनाते हैं इमसे ये चार प्राण पौगलिक हैआत्माके निज स्वभाव नहीं हैं। इनको सदा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावसे भिन्न जानना चाहिये । श्रीपूज्यपादस्वामीने समाधिशतकमें कहा भी है