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श्रीप्रवचनसारटोका |
द्रव्य प्राण हैं । पांच इंद्रियोसे व मन वचन काय व श्वाससे कार्य लेने में जो आत्मामें ज्ञान और वीर्यकी प्रगटता है व योगोंका हलनचलन है वह आत्माके अशुद्ध भाव हैं - तथा आयु कर्मके उदयसे आत्माका किसी शरीरमें रुका रहना ये सब भाव प्राण हैं । ये द्रव्य और भाव प्राण मेरे आत्मस्वभावसे भिन्न है । मैं सदा ही' 1 अपने शुद्ध सुख सत्ता चैतन्य बोध आदि प्राणोका धारी हूँ यही भावना मोक्षमार्गमें सहायक है ||१८||
उत्थानिका- आगे प्राण पौगलिक हैं जैसा पहले कहा है उसीको दिखाते हैं
जोवो पाणणिवद्धो वो मोहादिपहिं कम्मेहिं । उवभुंजं कम्मफलं वज्झदि अण्णेहि कम्मेहि ॥ ५६ ॥
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जीवः प्राणनिवद्धो बद्धो मोहादिकः कर्मभिः ।
उपर्भुजानः कर्मफलं बध्यतेऽन्यैः कर्मभिः ॥ ५९ ॥
अन्वय महित सामान्यार्थ - (मोहादि एहि कम्मेहि) मोहनीय आदि कर्मोसे (बद्धो) बंधा हुआ (जीवो) जीव (पाणणिबडो) चार प्राणोसे सम्बन्ध करता है ( कम्मफलं उर्वभुनं ) व कर्मो के फलको भोगता हुआ (अण्णेहि कम्मेहि वज्झदि) अन्य नवीन कमसे बंध जाता है ।
विशेषार्थ शुद्धात्माकी प्राप्तिरूप मोक्ष आदि शुद्ध भावोसे विलक्षण मोडनीय आदि आठ कर्मोंसे बंधा हुआ यह जीव इंद्रिय आदि प्राणोंको पाता है। जिसके कर्मबंध नही होते उसके यह चार पाण भी नही होते है इसीसे यह जाना जाता है कि ये प्राण पुद्गल के उदयसे उत्पन्न हुए हैं तथा जो इन ह्य णोंको
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