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द्वितीय खंड। [२२५ प्राणेश्चतुर्भिर्जीवत जीविष्यति यो हि जीवितः पूवम् स जीवः प्राणाः पुनः पुद्गलदव्यैनित्ताः ॥५८ ॥ ..
अन्वय सहित सामान्यार्थ:-( जो हि ) जो कोई वास्तवमें (चदुहिं पाणेहि ) चार प्राणोसे (जीवदि) जीता है, (जीवस्सदि) जीवेगाव (पुल्वं जीविदो) पहले जीता था ( सो जीवो) वह जीव है (पुण) तथा (पाणा) ये प्राण ( पोग्गलदव्वेहि ) पुद्गल द्रव्योस्से (णिवत्ता) रचे हुए है।
विशेषार्थ.-यह जीव निश्चय नयसै सत्ता, चैतन्य, सुख, ज्ञान आदि शुद्ध भाव प्राणोसे जीता चला आरहा है तथा जीता रहेगा तथापि व्यवहारनयसे यह ससारी जीव इस अनादि संसारमे जैसे वर्तमानमे द्रव्य और भावरूप अशुद्ध प्राणोसे जीता है ऐसे ही पहले जीता था व जबतक संसारमें है जीता रहेगा, क्योकि ये अशुद्ध प्राण उदयप्राप्त पुद्गल कोसे रचे गए है इसलिये ये प्राण पुद्गल द्रव्यसे विपरीत अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनत सुख, अनन्त वीर्य आदि अनन्त गुण स्वभावधारी परमात्म तत्त्वसे भिन्न हैं ऐसी भावना करनी योग्य है यह भाव है। ___ भावार्थ-इस आत्माके निश्चय प्राण सुख, सत्ता, चैतन्य, बोध
आदि हैं-ये कभी इस जीवसे भिन्न नहीं होते है । अशुद्ध अवस्थामे इनका परिणमन अशुद्ध होता है जबकि शुद्ध अवस्थामे शुद्ध परिणमन होता है । इद्रिय, बल, आयु, शासोच्छ्वास ये चार अशुद्ध प्राण पुद्गल कर्मके सम्बन्धसे है। पाच इंद्रियोकी रचना तथा कायका वर्तन, बचनका वर्तन व मनकी रचना, श्वासोच्छ्वासका वर्तन नामकर्मके उदयसे व आयु प्राण आयुकर्मके उदयसे होता है। ये