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२२४] श्रीप्रवचनसारटोका ।
भावार्थ-संसारी जीव किसी भी शरीरमें जिन शक्तियों के द्वारा जीवित रहकर काम करसके उनको प्राण कहते हैं। सब प्राण दश होते हैं। उनमें से पृथ्वीकायिक आदि पांच तरहके एकेन्द्रिय जीवोके चार प्राण होते हैं। स्पर्शन इंद्रिय, कायवल, आयु, श्वासोस्वास । ल्ट आदि हेंद्रिय जीवोंके जिह्वा इंद्रिय और वचनवल मिलाकर छः प्राण होते है । चींटी आदि तेन्द्रिय जीवोंके घाण, इंद्रिय जोडकर सात प्राण होते हैं। मक्खी भौरे आदि चौइन्द्रिय जीवोके आख इन्द्रिय मिलाकर आठ प्राण होते है । पंचेन्द्रिय असैनीके कर्ण निलाकर नव प्राण तथा पंचेन्द्रिय सैनीके मनवल मिलाकर दश प्राण होते है । इन प्राणोके व्यापारसे जीवकी प्रगट शक्तिया जानी जाती हैं। क्योंकि ये प्राण नाम कर्म व आयुकर्मके उदयसे तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतरायके क्षयोपशम और मोहके उदयसे यथासंभव होते है इसलिये ये प्राण
और इनका व्यापार सब कर्मपुद्गलके निमित्तसे होते है । शुद्ध आत्मामे या आत्माके अपने असली स्वभावमे ये प्राण व इनके व्यापार नहीं पाए जाते हैं। इसलिये हमको यह भावना भानी चाहिये कि हमारा आत्मा इनसे भिन्न अपने शुद्ध ज्ञान चेतना प्राणसे सदा ही जीवित रहता है । ये दस प्राण त्यागने योग्य हैं। परन्तु शुद्ध ज्ञान चेतना ग्रहण योग्य है।
उत्थानिक-आगे प्राण शब्दकी व्युत्पत्ति करके जीवका जीवपना और प्राणोका पुद्गलस्वरूपपना कहते हैंपाणेहि चहि जीवदि. जीवस्सदि जो हि जोविदो पुन्छ । सो जीवो पाणा पुण, पोग्गलव हि णिवत्ता ॥५८ ॥