________________
१६६] श्रीप्रवचनसारटोको । अर्थ पर्याय कहते हैं । जब यह जीव इस शरीरसे छूटकर अन्य भवके शरीरके साथ मिला करता है तब जीवके प्रदेशोंका आकार बदलता है तब विभाव व्यंजन पर्याय होती है । इसी ही कारणसे कि यह जीव एक जन्मसे दूसरे जन्म जाता है इसको क्रियावाने कहते है । तसे ही पुगलोकी भी व्यंजन पर्याय होती है। जब कोई विशेष स्कंधसे छूटकर एक पुद्गल अपने क्रियावानपनेसे दूसरे स्कंधमें मिल जाता है तब आकार बदलनेसे विभाव व्यनन पर्याय होती है। मुक्त जीवोके स्वभाव व्यंजन पर्याय इस तरह होती है सो कहते है । निश्चय रत्नत्रयमई परम कारण समयसाररूप निश्चय मोक्षमार्गके वलसे अयोगी गुणस्थानके अंत समयमे नख केशोको छोड़कर परमौदारिक शरीरका विलय होता है इस तरहका नाश होते हुए केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टयकी व्यक्तिरूप परम कार्य समयसार रूप सिद्ध अवस्थाका स्वभाव व्यजन पर्यायरूप उत्पाद होता है यह भेदसे ही होता है संधातसे नहीं होता है क्योकि मुक्तात्माके अन्य शरीरके सम्बन्धका अभाव है।
भावार्थ-यह लोक छ द्रव्योंका समुदाय है । हरेएक द्रव्य सामान्य और विशेष रूप गुणाका समुदाय है-गुणोमे सदा परिणमन या पर्याय हुआ करती हैं-इस परिणमनको अर्थ पर्याय कहते हैं । ऐसी अर्थपर्यायें छ' द्रव्योंमें होती रहती है। इनके भी दो भेद है-एक स्वभाव अर्थपर्याय, एक विभाव अर्थपर्याय | स्वभाव अर्थपर्याय अगुरुलघु नामके सामान्य गुणके विकार है। ये स्वभाव पर्यायें बारह तरहकी होती है-छः वृद्धिरूप छ. हानिरूप । अर्थात् अन्नत भागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात