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________________ द्वितीय खंड। [ १६३' गुणवृद्धि, असख्यात गुणवृद्धि, अनतगुणवृद्धि, इसी तरह अनत भाग हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग हानि, सख्यात गुण हानि, असख्यात गुण हानि, अनतगुण हानि 1 श्री देवसेन आचार्य रुत आलाप पद्धतिमें कहा है: अनाद्यनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षाम् । उन्मनन्त निमन्ति अलारटोलवजले ॥ १ । _अर्थ अनादि अनत द्रव्यके भीतर स्वभाव पर्याये प्रति समयमे इस तरह होती रहती है जैसे जलके भीतर लहरें उठती हैं वैठती है । इस हटातसे यह भाव झलकता है कि जैसे निर्मल क्षीर समुद्रके जलमे जब तरंगें होती है तब कहीं पर पानी कुछ ऊंचा व कहीपर कुछ नीचा होजाता है परन्तु न पानी मढ़ होता न मेला होता है तैसे द्रव्योंके भीतर जो अरुलघुगुण है उसमें परिणमन होता है। केवल अवस्थामें परिणमन होते हुए भी गुण कम बढ़ नहीं होता है न विभाव रूप परिणमता है । इन स्वभाव पर्यायोंका स्वरूप क्या है सो अच्छी तरह नहीं प्रगटा है इसको आगम प्रमाणसे गृहण करना योग्य है । ये स्वभाव अर्थ पर्याय तो सब द्रव्योमे सदा होती रहती है । जीव और पुद्गलोमें विभाव अर्थ पर्याय भी होती है जैसे जीवोंमे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि ज्ञानगुणका विभावपरिणमन है । सरलेश रूप तथा विशुद्ध रूप चारित्र गुणका विभाव परिणमन है । पुद्गलोमे एक रससे अन्य रस रूप, एक गधमे अन्य गध रूप, एक स्पर्शसे अन्य स्पर्श' रूंप, एक वर्णसे अन्य वर्णरूप परिणमन विभाव गुणपर्याय है या' विभाव अर्थ पर्यायें है।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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