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श्रीप्रवचनसारटीका ।
अद्वैतैकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते ।
कारकाणा क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ कर्मद्वैत फलद्वैत लोकद्वैत च नो भवत् विद्याऽविद्या द्वयं न स्यात् वन्धमोक्षद्वय तथा ॥ २५ ॥ भावार्थ - यदि सर्वथा अभेद या अद्वैतका एकान्त पक्ष लिया जावे तो जो कारक और क्रिया के भेद प्रत्यक्ष सिद्ध हैं सो नहीं रहेंगे । अर्थात् यह जीव कर्ता है, इसने अपने भाव किये इससे कर्म है, जीवने अपने ज्ञानसे जाना इससे करण है इत्यादि कारक नहीं बनेंगे और न अभेद एक रूप द्रव्यमें क्रिया कोई हो सक्ती है जैसे ठहरना, चलना, आदि और न अभेदसे कोई वस्तु पैदा हो सक्ती है । मिट्टीसे घडे, सुवर्णके कुंडल, जीवके क्रोधादि भाव नहीं पैदा हो सक्ते हैं । इसी तरह सर्वथा एक या अभेद रूप द्रव्यको माननेसे उसके द्वारा होनेवाले पुण्य या पाप कर्म, उनके सुख दुःख फल, यह लोक, परलोक, अज्ञानावस्था तथा सम्यज्ञानावस्था, तथा बन्ध और मोक्ष - इत्यादि कुछ भी नही बनेगा | इसी लिये द्रव्यका खभाव किसी अपेक्षा अभेद तथा किसी अपेक्षा भेद रूप है ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥ २३ ॥
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इसतरह सत् उत्पादको कहते हुए प्रथम, सत् उत्पादका विशेष कथन करते हुए दूसरी तैसे ही असत् उत्पादका विशेष वर्णन करते हुए तीसरी तथा द्रव्य और पर्यायोका एकत्व और अनेकत्व कहते हुए चौथी इसतरह सत् उत्पाद, असत् उत्पादके व्याख्यानकी मुख्यतासे गाथा चारमे सातवां स्थल पूर्ण हुआ है. उत्थानिका- आगे सर्व खोटी नयोके एकान्त रूप विवादको मेटने वाली सप्तभंगी नयका विस्तार करते हैं