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________________ द्वितीय खंड | [ १०३ अस्थिति य णत्थित्ति य हवदि भवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं । पजापण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥ २४ ॥ अस्तोति च नास्तोति च भवत्यवक्तव्यार्मात पुनर्द्वध्यम् । पर्यायेण तु केनापि तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ॥ २४ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ - (दव्व) द्रव्य ( केणवि पज्जाएण) किसी एक पर्यायसे (दु) तो ( अत्थित्ति) अस्ति रूप ही है (य) और किसी एक पर्यायसे ( णत्थिति य ) नास्ति रूप ही है तथा किसी एक पर्यायसे (अवत्तव्यमिदि) अवक्तव्य रूप ही ( हवदि ) होता है । (पुणो तदुभयम् ) तथा किसी एक पर्यायसे अस्ति नास्ति दोनो रूप ही हैं ( वा अण्ण ) अथवा किसी अपेक्षासे अन्य तीन रूप अस्ति एव अवक्तव्य, नास्ति एव अवक्तव्य तथा अस्ति नास्ति एव अवक्तव्य रूप (आदिम् ) कहा गया है । विशेषार्थ - यहा स्याद्वादका कथन है । स्यात्का अर्थ कथंचित है अर्थात किसी एक अपेक्षासे बाटके अर्थ - कथन करनेके हैं। वृत्तिकार यहां शुद्ध जीवके सम्बन्धमें स्याद्वादका या सप्तर्भगका प्रयोग करके बताते है। शुद्ध जीव द्रव्य अपने ही स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव चतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है अर्थात् जीवमे अस्तिपना है। शुद्ध गुण तथा पर्यायोका आधारभूत जो शुद्ध आत्मद्रव्य है वह स्वद्रव्य है, लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेश है सो स्वक्षेत्र कहा जाता है। वर्तमान शुद्ध पर्यायमे परिणमन करता हुआ वर्तमान समय काल कहा जाता है । शुद्ध चैतन्य यह स्वभाव है इस तरह स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा शुद्ध जीव है अथवा शुद्ध जीव में अस्तित्व स्वभाव है । यह स्यात्
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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