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द्वितीय खंड ।
तरह दोप आएगा । जैसा कहा है:
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सन्तानः समुदायश्च साधर्म्य च निरङ्कुशः ।
प्रेत्यभावश्च तत्सर्वं न स्यादेकत्वनिहवे ॥ २९ ॥
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भावार्थ - यदि द्रव्यको अपनी पर्यायोंसे भी एक रूप न
माना जावे तो पर्यायोकी संतान न ठहरे। क्रम रूप होनेवाली पर्यायों में जो द्रव्य अन्वय रूप बराबर बना रहता है उसको संतान कहते है । तथा समुदाय कहना भी न बनेगा । अर्थात् यदि द्रव्यको अपने गुणोंसे तथा गुणके विकार पर्यायोंसे सर्वथा भेद मानें तो यह द्रव्य गुणोंका या पर्यायोंका समुदाय है ऐसा नहीं बनेगा। वैसे ही साधर्म भाव भी न बनेगा । जितनी पर्यायें जिस द्रव्यकी होती हैं उन पर्यायोंमें द्रव्यका समान जातीय खभाव 'पाया जाता है । जैसे जीवकी देव मनुष्यादि पर्यायोंमें ज्ञानपना, 'पुद्गलकी घटपट आदि पर्यायोंमें स्पर्श, रस, गंध, वर्णपना, सत्ताकी अपेक्षा सर्व द्रव्यों सत् पना, ऐसा साधर्मीपना नहीं ठहरेगा यदि सर्वथा भेद माना जावे। तैसे ही परलोक भी न बनेगा - मरकर नया जन्म धारना परलोक है । सो यदि एक आत्मा अपनी देव -मनुष्यादि पर्यायोंमें नहीं रहे तब यह नहीं मान सके कि अमुक जीवने पुण्य बाधके देव पर्याय पाई । परन्तु जय संतान • समुदाय, साधर्म्य और परलोक अवश्य हैं तब अवश्य द्रव्यमें अभेद स्वभाव मानना होगा । सर्वथा द्रव्यका भेट अपने स्वभाव या पर्यायोसे नहीं हो सक्ता है। इसी तरह यदि कोई द्रव्यका सर्वथा अभेद स्वभाव माने तो क्या दोष आवेगा उसके लिये स्वामी समंतभद्री वही कहते हैं