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श्रीप्रवचनसारटीका ।
दोनोंके आधारभूत सुवर्णपना रूप प्रौव्य इनका अस्तित्व या निजभाव या स्वरूप है । तेसे ही अपने द्रव्यक्षेत्र कालमावकी अपेक्षा मोक्ष पर्यायका उत्पाद, और मोक्षमार्ग पर्यायका व्यय तथा दोनोके आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यपनारूप धौव्य इनके साथ अभिन्न जो परमात्मा द्रव्य उसका जो अस्तित्त्व है वही मोक्ष पर्यायका उत्पाद, मोक्षमार्ग पर्यायका व्यय तथा इन दोनोके आधारभूत मुक्तात्मा द्रव्यरूप ध्रौव्य इनका अस्तित्त्व या निजभाव या स्वरूप है। इस तरह जैसे मुक्तात्मा द्रव्यका अपने ही गुण पर्याय और . उत्पाद व्यय ध्रौव्यके साथ स्वरूपका अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व अभिन्न स्थापित किया गया है तसे ही शेष सर्व द्रव्योका भी स्वरूप अस्तित्त्व या अवान्तर अस्तित्त्व स्थापित करना चाहिये। इस गाथाका यह अर्थ है ।
भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने स्वरूप अस्तित्त्व या अवान्तर सत्ताका खरूप बताया है। हरएक द्रव्य अपने अखंड जितने प्रदेशोको लिये है चाहे वह एक प्रदेश हो व अनेक वह द्रव्य उतने प्रदेशोके साथ अपनी सत्तको दूसरे द्रव्यसे टथक् रखता है। तथा उसकी इस अवान्तर या पृथक् सत्तामें ही गुणपर्यायपना या उत्पाद व्यय ध्रौव्य रहते हैं। जिसका भाव यह है कि जहां द्रव्यका अस्तित्व है वहीं उसके गुणपर्याय है व वहीं उसके उत्पाद व्यय ध्रौव्य है । इन तीन लक्षणोकी अभिन्नता है, एकता है । ये तीनो लक्षण द्रव्यमें अविनाभावी हैं, न कोई द्रव्य कभी अपनी । सत्ताको छोड़ता है न गुणपर्यायोंसे रहित होता है न उत्पाद व्यय धौव्यको त्यागता है । द्रव्यमें हरसमय द्रव्यके ये तीनो ही लक्षण