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________________ २२२ ] श्रीप्रवचनसारटोका। भी है । अपने शुद्ध स्वभावकी अपेक्षा यह एक ही समयमें अपनेको और सर्वको विना क्रमके जानता है । जीवमें ज्ञातापना और ज्ञेयपना दोनों हैं जब कि अन्य पुद्गलादि पदार्थ ज्ञाता नहीं हैं मात्र ज्ञेय हैं । ऐसा भेद जीवका अन्य पदार्थोके साथ समझना चाहिये। इस जीवके जो व्यवहारसे इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोश्वास ऐसे चार प्राणका सम्बन्ध है सो भी संसार अवस्थामें होता है। ये प्राण कोके उदयके निमित्तसे होते हैं। तथा यह संसारी जीव अनादिसे ही संसारमें पड़ा है इसलिये हरएक शरीरमें इन प्राणोंक ही द्वारा जीता है। ये प्राण भी निश्चयसे जीवका स्वरूप नहीं है। जीव तो निश्चयसे शुद्ध चैतन्य प्राणका धारी है। ऐसा भेद विज्ञान करके निज खरूपको भिन्न अनुभव करना चाहिये ॥५६॥ उत्थानिका-आगे इन्द्रिय आदि चार प्राणोका स्वरूप कहते हैं इन्दियपाणो य तधा वलपाणो तह य आउपाणो य । आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होति पाणा ते॥ ५६ ॥ इन्द्रियप्राणश्च तथा बलप्राणस्तथा चायुःप्राणश्च । आनपानप्राणो जीवानां भवन्ति प्राणास्ते ॥ ५६ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ:-(इन्दिय पाणो) इन्द्रिय प्राण (य तधा) तथा गाणो) बल प्राण (तह य) तैसे ही (आउपाणो)आयु प्राण त्याचार (आणप्पाणप्पाणो) श्वासोश्वास प्राण (ते पाणा) ये प्राण ( जीवाणं ) जीवोके ( होंति ) होते है। विशेषार्थ-अतोंद्रिय और अनन्त सुखके कारण न होनेसे इंद्रिय प्राण आत्माके स्वभावसे विलक्षण है। मन, वचन, कायके
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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