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________________ ६४] श्रीप्रवचनसारटीका । देव, पशु या नारकी अथवा निर्विकार शुद्धोपयोगमें परिणमन करके सिद्ध हो जावेगा । इस प्रकार होकरके भी अथवा वर्तमान कालमे होता हुआ भाविकालमें होगा व भूतकालमे हुआ था इस तरह तीनो कालोमे पर्यायोको बदलता हुआ भी क्या अपने द्रव्यपनेको छोड देता है ? द्रव्यार्थिक नयसे द्रव्यपनेको कभी नही छोड़ता है तब अपनी अनेक भिन्न २ पर्यायोंमें दूसरा कैसे हो सक्ता है ? अर्थात दूसरा नहीं होता कितु द्रव्यकी अन्वयरूप शक्तिसे सदभाव उत्पादरूप वही अपने द्रव्यसे अभिन्न है । यह भावार्थ है। भावार्थ-यहां आचार्यने सत् उत्पादका दृष्टांत देकर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि द्रव्य नित्त्य है और सतरूप है कभी अपनी सत्ताको छोडता नही-अपनी त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोमे वहीं हैअन्य कभी नहीं होता है । बौद्ध मतकी तरह क्षणिक नहीं है किन्तु द्रव्यपनेकी अपेक्षा नित्य है। यही जीव अपने अशुद्ध उपयोगसे चार गतिका कर्म बाध उस कर्मके उदयसे कभी मनुष्य, कभी देव, कभी पशु, कभी नारकी होजाता है तथा यही जीव अपने शुद्धोपयोगके बलसे कर्मोको नाशकर सिद्ध होजाता है। इन अनेक अवस्थाओंमें वही जीव प्रगट हुआ है यह सत् उत्पाद है। जीवने अपने गुणोंको किसी भी पर्यायमें नहीं छोड़ा है। इसी तरह पुद्गल पर भी लगा सके हैं । पुद्गलके परमाणु परस्पर मिलने या विछुड़नेसे नाना प्रकारके स्कंध बन जाते हैं कभी कार्माण वर्गणा रूप कभी तैनस वर्गणारूप, कभी आहार वर्गणारूप, कभी भाषा वर्गणारूप तथा कभी मनोवर्गणा रूप, तथापि पुद्गल रूप ही रहते है-वे परमाणु अपने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुणोंको कभी नहीं
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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