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द्वितीय खंड।
[६५ त्यागते हैं। उनका हरएक यर्यायमे सत् उत्पाद ही होता है। इस कथनसे यह बात भी स्पष्ट कर दी है कि जीवकी सर्व पर्यायें जीव रूप तथा पुगलकी सर्व पर्याय पुद्गल रूप होगी एक द्रव्यकी पर्याय अन्य द्रव्य रूप नहीं हो सक्ती हैं। जीव कभी पुद्गल नहीं होगा, पुद्गल कभी जीव नहीं होगा ऐसा वस्तुका स्वभाव समझकर हमको उचित है कि हम अपने आत्म द्रव्यको शुद्ध अवस्थामें रखनेके लिये साम्यभावका अभ्यास करें ॥२१॥
उत्थानिका-आगे द्रव्यके असत् उत्पादको पूर्व पर्यायसे भिन्न निश्चय करते हैं
मणुओ ण होदि देवो, देवो वा माणुसो व सिद्धो वा। एव अहोजमाणो अणण्णभाव कधं लहदि ॥ २२ ॥ मनुजो न भवति देवो देवो वा मानुषो वा सिद्धो वा । एवममवन्ननन्यभाव कप लभते ॥ २२ ॥
अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुओं) मनुष्य (देवो ण होदि) देव नहीं होता है । (वा देवो) अर्थवा देव (मानुसो व सिद्धो वा) मनुष्य या सिद्ध नही होता है । (एवं अहोज माणो) ऐसा नहीं • होता हुआ (अणण्ण भावं कधं लहदि) एक पनेको कैसे प्राप्त हो 'सक्ता है?
। विशेषार्थ-देव मनुष्यादि विभाव पर्यायोसे विलक्षण तथा • निराकुल स्वरूप अपने स्वभावमें परिणमन रूप लक्षणको धरनेवाला
परमात्मा द्रव्य यद्यपि निश्चय नयसे मनुष्यपर्यायमें तथा देवपर्यायमें समान है तथापि व्यवहारनयसे मनुष्य देव नही होता है क्योंकि देव पर्यायके कालमें मनुष्य पर्यायकी प्राप्ति नहीं है तथा मनुष्य पर्यायके