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श्रीप्रवचनसारटीका ।
कालमें देव पर्यायकी प्राप्ति नही है । इसी तरह कोई चार भेदोंसे देव है सो न मनुष्य है न अपने आत्माकी प्राप्तिरूप सिद्ध अवस्थामे रहनेवाला सिद्ध है क्योकि पर्यायोका परस्पर भिन्न २ काल है जैसे सुवर्ण द्रव्यमें कुन्डल कंकण आदि पर्यायोका भिन्न२ काल है । इस तरह एक दूसरे रूप न होता हुआ एकपनेको कैसे प्राप्त हो सक्ता है ? किसी भी तरह नहीं प्राप्त हो सक्ता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि असद्भाव उत्पाद या असत उत्पाद पूर्व २ पर्यायसे भिन्न २ होता है ।
भावार्थ- पहली गाथामें सत् उत्पादको द्रव्यकी
अपेक्षा
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कहा था । यहां असत् उत्पादको पर्यायकी अपेक्षा कहते हैं ।
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यद्यपि द्रव्यमे शक्ति रूपसे उसमें होने योग्य अनंत पर्यायें वास करती हैं परन्तु उनमे से एक समय में एक ही पर्यायकी प्रगटता होती है । जब एक पर्याय प्रगट होती है तब ही पहली पर्याय नष्ट होजाती है इस तरह जब पर्यायकी अपेक्षा विचार किया जावे तो इस पर्यायको असत् उत्पाद कहेंगे । जो मनुष्य पर्यायमे जीव है वह पर्यायकी अपेक्षा मनुष्य पर्याय मे है न वह देव, नारकी या तियंच पर्यायमें है । इसी तरह जो देव है वह देव पर्याय हीमें हैं अन्य नरक, पशु व मनुष्य या सिद्ध पर्यायमे नही है क्योंकि देवगतिमें जो जो अवस्था शरीर व विभूतिकी होती है वह अवस्था अन्य गतिमें नहीं होती । - सिद्ध पर्यायमे शुद्ध अवस्था है । वह संसार पर्याय में नहीं होती है इस लिये सिद्ध नीवका पर्यायकी अपेक्षा असत् उत्पाद हुआ ऐसा समझना चाहिये । इस कथनका तात्पर्य यही है कि पर्याय बदलती है मूल द्रव्य नही बदलता है।
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