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२१६] श्रीप्रवचनसारटीका । अपना परमात्मा ही उपादेय है ऐसी रुचिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन जहां वीतराग चारित्रका होना अविनाभावी है उसकी ही मुख्यतासे है न कि कालकी, इसलिये काल हेय है। जैसा कहा है
कि पलविएणयहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सिझिहहिं जेवि भंविया त जाणह सम्ममाइप्प ॥'
भाव र्थ-बहुत क्या कहें जितने उत्तम पुरुष भूतकालमें सिद्ध हुए हैं व जो भव्य जीव भविष्यमे सिद्ध होगे सो सब सम्यग्दर्शनकी महिमा जानो।
वार्थ-इस गाथामें आचार्यने काल द्रव्यको एक प्रदेशी सिद्ध किया है और यह कहा है कि जिम निस पदार्थका हम अस्तित्व मानें उसमें प्रदेश अवश्य होने चाहिये तब ही उत्पाद व्यय धौव्य रूप अस्तित्व बन सका है। द्रव्यमे प्रदेशस्त्र नामका गुण होता है जिससे हरएक द्रव्य कोई न कोई आकार अवश्य रखता है । जिसमें कोई आकार न होगा वह शून्य होगा उसका सर्वथा अभाव होगा, क्योकि काल द्रव्यमें समय पर्यायका उत्पाद व्यय होता है तथा कालाणुका धौव्य है तब वह प्रदेशवान् अवश्य है। विना प्रदेशके वह शून्य होगा तब उसकी समय पर्याय भी न होगी । यदि कोई द्रव्यको प्रदेशरूप न मानकर उत्पाद व्यय धौव्य सिद्ध करेगा तो बिलकुल सिद्ध न होगा। जो वस्तु होगी उसीमे अवस्था होना संभव है।
यहांपर श्री अमृतचंद्राचार्यने यह बात उठाई है कि काल द्रव्यके लोकाकाश प्रमाणे अखंड असंख्यात प्रदेश नहीं माने जा सक्ते। ऐसा यदि माने तो समय पयोयकी सिद्ध नहीं होगी, क्योंकि