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___द्वितीय खंड। [३४१ परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः।
त प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावः ॥ १८ ॥ ___ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(नदा) जब (रागदोसजुदो) राग द्वेष सहित (अप्पा) आत्मा (सुहम्मि असुहम्मि) शुभ या अशुभ भावमें (परिणमदि) परिणमन करता है तब (कम्मरय ) कर्मरूपी रन स्वयं ( णाणावरणादिभावेहिं ) ज्ञानावरणादिकी पर्यायोसे (पविसदि) जीवमें प्रवेश कर जाती है।
विशेषार्थ-जब यह राग द्वेषमें परिणमता हुआ आत्मा सर्व शुभ तथा अशुभ द्रव्यमे परम उपेक्षाके लक्षणरूप शुद्धोपयोग परिणामको छोड़कर शुभ परिणाममें या अशुभ परिणाममे परिणमन कर जाता है उसी समयमें जैसे भूमिके पुद्गल मेघनलके संयोगको पाकर आप ही हरी घास आदि अवस्थामें परिणमन कर जाते हैं इसी तरह कर्मपुद्गलरूपीरज नानाभेदको धरनेवाले ज्ञानावरणादि मूल तथा उत्तर प्ररुतियोंकी पर्यायोमें स्वय परिणमन कर जाते हैं। इससे जाना जाता है कि ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्पत्ति उन्हींके द्वारा होती है तथा उनमे मूल व उत्तर प्रकृतियोकी विचित्रता भी उन्हींकत है, जीवन नहीं है ॥ ९८॥
भावार्थ-रागी द्वेषी आत्मा कभी शुभोपयोग कभी अशुभोपयोग भावोको करता है, तब ही उस आत्माके विना चाही हुई भी पुद्गलकर्मवर्गणाए आत्माके प्रदेशोमें प्रवेशकर आत्माके भावोंके निमित्तसे स्वय अनेक प्रकार मूल या उत्तर प्रकृतिरूप परिणमन कर जाती है। ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। अभिप्राय यह है कि आत्मा न उनको ग्रहण करता है और न पाप या पुण्यरूप परिणमाता है ।। ९८ ॥