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३४०] श्रीप्रवचनसारटोका । नैमित्तिक क्रियाके कारण जीवको भी व्यवहारमें बन्धकर्ता और मोक्षकर्ता कहदेते हैं । वास्तवमें जीव अपने भावोंका ही कर्ता है। जैसे सूर्य अपने उदासीन भावसे उदय होता है तथा अस्त होता है, परन्तु उसके उदयका निमित्त पाकर कमल स्वयं फूल जाते हैं व चकवा चकवी स्वयं मिल जाते हैं व उसके अस्तैका निमित्त पाकर कमल स्वयं बन्द हो जाते हैं व चकवा चकवी स्वयं विछड़ . जाते हैं। ऐसा वस्तुका खभाव है। श्री अमृतचन्द्राचार्यने श्री । समयसारकलशमें कहा हैज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म,
जानाति केवलमय दिल तत्स्वभाव । जाननर रणवेदनयोरभाव'
छुद्धग्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।।६ ॥१०॥ - भावार्थ-ज्ञानी जीव कर्मोको न तो करता है न उनका फल भोक्ता है परन्तु वह उदासीन रहता हुआ केवल मात्र उन कर्मोके खमावको जानता रहता है । इसलिये कर्ता व भोक्तापनेसे रहित होता हुआ व मात्र परको जानता हुआ अपने शुद्धस्वभावमे निश्चल रहता हुआ मुक्तरूप ही रहता है । तात्पर्य यह है कि वंध व मोक्षको नैमित्तिक समझकर हमें इनसे उदासीन होकर अपने शुद्ध , ज्ञानानंदमई स्वभावमें ही तन्मय रहना योग्य है ॥ ९७॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे द्रव्यकर्म निश्चयसे । स्वयं ही उत्पन्न होते हैं वैसे वे स्वयं ही ज्ञानावरणादि विचित्ररूपसे परिणमन करते हैं
परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो, तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिमावेहि ॥ ८ ॥
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