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द्वितीय खंड ।
[३३२ 'धूलसे बंध जाता है। और जब कभी पूर्वोक्त कारणं समयसारकी परिणतिमें परिणमन करता है तब उन्हीं कर्मकी रनोसे विशेष करके छूटती है। इससे यह कहा गया कि यह नीव अशुद्ध परिणामोंसे बंधता है तथा शुद्ध परिणामोंसे मुक्त होता है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसार तथा मोक्ष अवस्था जीवके किस तरह होती है इस बातको स्पष्ट किया है कि यह । आत्मा जो अपने ही भावोंका उपादानकर्ता है संसारमें अनादिकालसे कर्मोके साथ वधा हुआ है। उस वन्धके कारण मोहके उदयसे जव इसके आप ही मिथ्यादर्शन व रागद्वेषरूप विभावभाव होते हैं तब इस जीवके न चाहते हुए भी न उनको प्रेरणा करके ग्रहण करते हुए भी स्वभावसे ही वे लोकमे भरी कर्मवर्गणारूपी धूने आकर जीवके प्रदेशोमे तिष्ठ जाती है ऐमा कोई निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । जैसे तैलसे चुपडा हुआ शरीर जहा होता है वहां न चाहते हुए भी मिट्टी शरीरपर चिपक जाती है वैसे ही जब यह आत्मा वीतरागभावमें परिणमन करता है तब भी स्वभावसे ही वह कर्मरज आप ही विशेषपने आत्मासे छूट जाती है। जैसे जब तेल शरीरमें प्रवेश कर जाता है-उपर चिकनई नहीं रहती है तब धूला स्वय शरीरसे गिर जाता है । जगतमे कर्मबधका और आत्माके अशुद्ध भावका ऐसा ही कोई विलक्षण संबंध है। यदि विचार करके देखोगे तो मालूम पडेगा कि आत्मा सिवाय अपने ही भावोके और कुछ नहीं करता है । अशुद्ध भावोका निमित्त पाकर वे कर्म आप ही बन्ध नाते है तथा शुद्ध भावोंका निमित्त पाकर वे कर्म आप ही छूट जाते हैं। इस निमित