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________________ ३३८ ] श्रीप्रवचनसारटीका ज्ञानी निश्चल, चैतन्यमई स्वभावमें सदा अरूढ़ रहता हुआ जानता मात्र, ही है, किसी भी पुद्गलीक भावको करता नहीं है । ऐसा जान हमको अपने साम्यभावमें रहकर वीतरागभावका आनन्द भोगना चाहिए || ९६ ॥ उत्थानिका- आगे शिष्यने प्रश्न किया कि जब यह आत्मा पुद्गलीक कर्मको नहीं करता है न छोड़ता है तब इसके 'बन्ध कैसे होता है तथा मोक्ष भी कैसे होता है ? इसके समाधानमे आचार्य उत्तर देते हैं— स इदाणि कत्ता संसगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलोहिं ॥ ६७ ॥ सदानीं कर्त्ता सन् स्वपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥ ९७ ॥ अन्वय सहित सामान्याथ - ( इदार्णि) अत्र इस संमार अवस्थामें अशुद्धनयसे (स) वह आत्मा (दव्वनादस्स सगपरिणामस्स) अपने ही आत्मद्रव्यसे उत्पन्न अपने ही परिणामका (कत्ता सं ) कर्ता होता हुआ (कदाई ) कभी तो (कम्मधूलीहि ) कर्मरूपी धूलसे (भादीयदे) वध जाता है व कभी ( विमुच्चदे ) छूट जाता है । विशेषार्थ - वह पूर्वोक्त संसारी आत्मा अब वर्तमान में इसतरह पूर्वोक्त नय विभागसे अर्थात् अशुद्ध नयसे निर्विकार नित्यानन्दमई एक लक्षणरूप परमसुखामृतकी प्रगटतामई कार्य समयसारको साधनेवाले निश्चयरत्नत्रयमई कारण समयसारसे विलक्षण मिथ्यात्व व रागादि विभावरूप अपने ही आत्मद्रव्य से उत्पन्न अपने परिणामका कर्ता होता हुआ पूर्वोक्त विभाव परिणाम के समय में कर्मरूपी
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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