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श्रीप्रवचनसारटीका
ज्ञानी निश्चल, चैतन्यमई स्वभावमें सदा अरूढ़ रहता हुआ जानता मात्र, ही है, किसी भी पुद्गलीक भावको करता नहीं है । ऐसा जान हमको अपने साम्यभावमें रहकर वीतरागभावका आनन्द भोगना चाहिए || ९६ ॥
उत्थानिका- आगे शिष्यने प्रश्न किया कि जब यह आत्मा पुद्गलीक कर्मको नहीं करता है न छोड़ता है तब इसके 'बन्ध कैसे होता है तथा मोक्ष भी कैसे होता है ? इसके समाधानमे आचार्य उत्तर देते हैं—
स इदाणि कत्ता संसगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलोहिं ॥ ६७ ॥ सदानीं कर्त्ता सन् स्वपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ॥ ९७ ॥
अन्वय सहित सामान्याथ - ( इदार्णि) अत्र इस संमार अवस्थामें अशुद्धनयसे (स) वह आत्मा (दव्वनादस्स सगपरिणामस्स) अपने ही आत्मद्रव्यसे उत्पन्न अपने ही परिणामका (कत्ता सं ) कर्ता होता हुआ (कदाई ) कभी तो (कम्मधूलीहि ) कर्मरूपी धूलसे (भादीयदे) वध जाता है व कभी ( विमुच्चदे ) छूट जाता है ।
विशेषार्थ - वह पूर्वोक्त संसारी आत्मा अब वर्तमान में इसतरह पूर्वोक्त नय विभागसे अर्थात् अशुद्ध नयसे निर्विकार नित्यानन्दमई एक लक्षणरूप परमसुखामृतकी प्रगटतामई कार्य समयसारको साधनेवाले निश्चयरत्नत्रयमई कारण समयसारसे विलक्षण मिथ्यात्व व रागादि विभावरूप अपने ही आत्मद्रव्य से उत्पन्न अपने परिणामका कर्ता होता हुआ पूर्वोक्त विभाव परिणाम के समय में कर्मरूपी