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द्वितीय खंड जीवका ग्रहण त्याग अपने ही परिणामोमें होता है । यह नीव न तो ज्ञानावरणादि कर्माको ग्रहण करता है, न छोडता है और न घट पट आदिको करता है । व्यवहारमें जीवको इन कोका फर्ता भोक्ता व नाशकर्ता तो इस कारणसे कहते हैं कि इस जीवका भाव इन कर्मों के कर्मरूप होनेमें व कर्मदशा छोड पुद्गलपिंड होनेमें निमित्त कारण है व कुम्हारका भाव हस्तपग हिलानेमे व घटके बनाने में निमित्त कारण है। व्यवहारमे जीवको पुद्गलकी परिणतिका व पुगलको जीवकी अशुद्ध परिणतिका निमित्तकारण कह सके हैं परन्तु उपादानकारण कभी नही कह सक्के । इस लिये वास्तवमे जीव अपनी परिणतिका ही ग्रहण त्याग करता है। भेद विज्ञानी पुरुषको शुद्ध निश्चयनयके द्वारा देखना चाहिये तब सर्व ही जीव व अपना नीव सर्व पुद्गलादि द्रव्योसे पृथक् ही परम शुद्ध ज्ञानानदमय अपने शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावके कर्ता ही दीख पड़ेंगे। यही दृष्टि जैसे क्षीरनीरके मिश्रणमे क्षीरनीरको भिन्न देखती है वैसे जीव पुद्गलके मिश्रणमे जीवको जीव और पुद्गलको पुद्गल देखती है। श्री समयसारकलशमे स्वामी अमृतचदाचार्य कहते है
ज्ञ नाद्विवेत्रातया तु परामनोर्यो ।
जानाति हंस इव वाः पयसोविशेषं ॥ चतन्यधातुमचल स सदाविरुढो ।
जान'त एव हि करोति न किचनापि ॥ १४-३॥ भावार्थ-जैसे हंस दूध पानी मिले होनेपर भी दूध और पानीके भिन्न २ भेदको जानता है ऐसे ही ज्ञानी ज्ञानके द्वारा विवेक बुद्धिसे पुद्गल और आत्माको भिन्न २ जानता है। ऐसा
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