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________________ २००] श्रीप्रवचनसारटीका। परमात्म तत्वको नहीं प्राप्त करता हुआ भूतकी अपेक्षा अनन्तकालसे. इस संसारसमुद्रमें भ्रमता चला आया है इसलिये ही अव इसके लिये अपना ही प्रमात्म तत्व सब तरहसे ग्रहण करने योग्य मानकर श्रद्धान करने योग्य है, व स्वसंवेदन ज्ञानसे जानने योग्य है तथा आहार, भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञाको आदि लेकर सर्व रागादि मावोंको त्यागकर ध्यान करने योग्य है ऐसा तात्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रूपसे काल द्रव्यकी सिद्धि की है । जिसमें उत्पाद व्यय ध्रौव्य हो उसीको द्रव्य कहते हैं। काल द्रव्यकी वर्तमान समय पर्यायका पुद्गल परमाणुकी निकटवर्ती कालाणुपर मंदगतिसे आने रूप सहकारीकारणसे उत्पन्न होना सो उत्पाद है । इस समयपर्यायके होते हुए पूर्व समयपर्यायका नाश होना सो व्यय है और जिसकी वह समयपर्याय थी व है व आगामी होगी वह कालद्रव्य प्रौव्य है। कालका गुण वर्तना है अर्थात् आप स्वयं बर्तन करके दूसरे द्रव्योके वर्तनेमें सहकारी कारण होना है-इस तरह कालद्रव्य सिद्ध है । वृत्तिकारने दूसरा अर्थ केवल व्यवहारकालकी अपेक्षासे किया है उसका भी भाव यह है कि वर्तमान समय पर्यायके सदृश अनंतानंत समय पर्याय भूतकालमे हो चुकी व अनन्तानन्त समय पर्याय भविष्यमें होंगी इन समस्त तीन कालवर्ती समयोंको व्यवहारकाल कहते हैं। समय पर्यायका उपादानकारण कालद्रव्य है निमित्तकारण पुद्गल परमाणुकी मंदगति है। इस मंदगतिमें जो कुछ समय लगता है वह सबसे छोटा समयरूप कालकी पर्यायरूप अंश है। यद्यपि एक परमाणुमें यह भी शक्ति है कि यदि वह शीघ्र गतिसे जावे तो
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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