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३४४] श्रीप्रवचनसारटोका।
सपदेसो सो अप्पा कसायदो मोहरागदोसेहि । कम्मरजेहि सिलिट्ठो बंधोत्ति परविदो समये ॥ १०० ॥ सप्रदेश: स आत्मा कषायितो मोहरागदपैः । कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपतः समये ॥ १० ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः-(सपदेसो सो अप्पा) प्रदेशवान वह आत्मा (मोह रागदोसेहि कसायदो) मोह राग द्वेषोसे कषायला होता हुआ (कम्मरजेहि) कर्मरूपी धूलसे (सिलिहो) लिपटा हुआ (वघोत्ति) बधरूप है ऐसा (समये परूविद्रों) भागममें कहा है। . विशेषार्थ-लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशोंको अखंड रूपसे रखनेवाला यह आत्मा मोह रहित अपने शुद्ध आत्म. तत्त्वकी भावनाको रोकनेवाले मोह राग द्वेष भावोंसे रंगा हुआ कर्मवर्गणा योग्य पुद्गलरूपी धूलसे बंधा हुआ अभेदनयसे आगममें बंधरूप कहा गया है । यहां यह अभिप्राय है कि जैसे वस्त्र लोध, फिटकरी आदि द्रव्योंसे कषायला होकर मनीठ आदि रगसे रंगजाता हुआ अभेदनयसे लाल वस्त्र कहलाता है वैसे वस्त्रके स्थानमें यह आत्मा लोधादि द्रव्यके स्थानमें मोह रागद्वेषोसे परिणमन करके मंजीठके स्थानमें कर्मपुद्गलोसे बंधाहुआ वास्तवमे कर्मसे भिन्न है
तौ भी अभेदोपचार लक्षण असद्भूत व्यवहारनयसे वधरूप कहा 'जाता है, क्योकि असदभूत व्यवहारनय का विषय अशुद्ध द्रव्यके वर्णन करनेका है।
भावार्थ:-इस गाथामें आचार्यने इस बातको स्पष्ट किया है कि वास्तवमें बंध तो पुद्गलकर्मका पु लकर्मके साथ होता है परन्तु आत्माके सर्वप्रदेश पुगुल कर्मोसे छाजाते हैं इसलिए व्यवहारनयसे