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द्वितीय खंड। [३४५ आत्माको बंधरूप, कहते हैं। जैसे वस्त्रको लाल कहना व्यवहार है वैसे आत्माको बंधा हुआ कहना व्यवहार है । जैसे वस्त्रमें लोध फिटकरीके द्वारा कपायित होनेपर मंजीठका रग चढ़ता है वैसे आत्मामें उसके रागद्वेष मोह भावोंके निमित्तसे कर्मपुद्गलोंका प्रवेश होकर बंध होता है। प्रयोजन यह है कि यह बध ही संसारभ्रमणका कारण है ऐसा जानकर इस बधके कारण रागद्वेष मोह भावोंका निवारण करना चाहिये जिससे यह जीव अबंध और मुक्त होजावे। श्री समयसारकलशमें स्वामी अमृतचंद्रनी कहते हैंयदिह भवति रागद्वेपदोषप्रसूतिः,
वतरपि परेण दूषण नास्त तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सप्पत्यबोधो ___भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥२७॥ १० ॥
भावार्थ-जो ये रागद्वेषकी उत्पत्ति आत्मामें होती है इसमें दूसरोंका कोई दोष नहीं है । यह आत्मा स्वय ही अपराधी होता है तब इसके अज्ञान वर्तन करता है। यह बात विदित हो कि अज्ञानका नाश हो और सम्यग्ज्ञानका लाभ हो । अर्थात् यह आत्मा निन स्वरूपके शृद्धान ज्ञानचारित्रको न पाकर रागद्वेष मोहमें वर्तता है, यही इसका अपराध है अतएव इस आत्माको उचित है कि श्री गुरुके सम्यक उपदेशको हृदयमें धारणकरके सम्यग्ज्ञानके प्रतापसे वीतराग विज्ञानभावमें रमण करे ॥ १० ॥ ____उत्थानिकाः-आगे निश्चय और व्यवहारका अविरोध दिखाते हैं
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छएण णिदिहो। अरहंतेहि जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥ ११ ॥