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एप बंघसमासो जीवाना निश्चयेन निर्दिष्टः । अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्यथा भणितः ॥ १०१ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः - ( अरहंतेहि ) अरहंतो के द्वारा ( जदीणं ) यतियोंको ( जीवाणं ) जीवोका ( एसो बंघसमासो) यह रागादि परिणतिरूप बंधका संक्षेप ( णिच्छरण णिद्दिट्टो) निश्वयनयसे कहा गया है । ( वबहारो ) व्यवहारनय से (अण्णा) इससे अन्य - जीव पुगलका बंध ( भणिदो ) कहा गया है ।
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विशेषार्थ - निर्दोष परमात्मा अरहंत हैं, उन्होंने जितेन्द्रिय तथा आत्मस्वरूपमे यत्नकरनेवाले गणधरदेव आदि यतियोको निश्रयनयसे जीवोके रागादि परिणामको ही संक्षेपमे बंध कहा है । तथा निश्चयनयकी अपेक्षा व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मके बंधको बंध कहा है । निश्वयनयका यही मत है कि यह आत्मा रागादिभावोका ही कर्ता और उनहीका भोक्ता है । द्रव्यकर्म बन्धको कहनेवाले अद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा निश्चयनयके भी दो भेद है । जो शुद्ध द्रव्यका निरूपण करे वह शुद्ध निश्चयनय है तथा जो अशुद्ध द्रव्यका निरूपण करे वह अशुद्ध निश्चयनय है । आत्मा द्रव्य कमको करता है तथा भोगता है यह अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। इस तरह दोनो नयोसे बंधका स्वरूप है। यहां निश्चयनय उपादेय है और असदभूत व्यवहार हेय है। यहां शिष्य प्रश्न करता है कि आपने निश्चयनयसे कहा है कि यह आत्मा रागादि भावोंको कर्ता व भोक्ता है सो यह किस तरह उपादेय होता है ? इसका समाधान आचार्य करते हैंकि जब यह भीव इस बातको जानेगा कि रागादि भावोंको ही
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