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________________ द्वितीय खंड | [ ३४७ आत्मा करता है द्रव्यकर्मीको नहीं करता है तथा ये रागादि भाव ही के कारण हैं, तब यह रागादि विकल्पजालको त्यागकर रागादिके विनाशके लिये अपने शुद्ध आत्माकी भावना करेगा । इस भाव - नासे ही रागादि भावोका नाश होगा | रागादिके विनाश होनेपर आत्मा शुद्ध होगा । इसलिये परम्परायसे शुद्धात्माका साधक होनेसे इस अशुद्ध नयको भी उपचार से शुद्ध नय कहते है यह वास्तव मे निश्रयनय नही कही गई है तैसे ही उपचार से इस अशुद्ध नयको उपादेय कहा है यह अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथाने निश्चय और व्यवहार बधको अपेक्षाके भेसे वर्णन करके दोनोके कथनका अविरोध दिखलाया है। निश्चय नखाश्रित है - एक ही पदार्थको दूसरेके आश्रय से बयान करती है । जब कि व्यवहारनय पराश्रित है - एक पदार्थको दूसरेके आश्रय से वयान करती है । अशुद्ध निश्चयनयसे रागादिभावसे रजित आत्मा ही वध स्वरूप है क्योकि यही रागादिभाव जीवके अपने ही औपाधिक भाग हैं और ये ही कर्मोके बांधने में कारण है। कर्म वर्गणाओका और आत्माके प्रदेशोका परस्पर बन्ध होना व्यवहारनयसे वध है। रागादिरूप होने से मेरी ही वीतरागता नष्ट होती है ऐसा समझकर विज्ञानी जीवको उचित है कि वह इनरूप परिणमन न करके शुद्ध ज्ञानस्वभाव परिणमन करे जिससे आत्मा कर्मवधसे छूटकर मुक्त हो जावे । श्री अमृतचंद्र स्वामी समयसारकलशमे कहते हैपूर्णकाच्युतशुद्धबोधमहिमा बोद्धा न वोध्यादय, पापात्कमपि विक्रया तत इतो दीपः प्रकाशादिव ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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