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________________ द्वितीय खंड | [ ३४३ योग्य सर्व मूल और उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य मध्यम उत्कृष्ठ अनु-, भागको अर्थात् कर्मकी शक्तिके विशेषको जानना चाहिये । भावार्थ - घातिया कर्म सर्व पाप प्रकृतियें है इनका अनुभाग चार तरहका है लतारूप कोमल, काष्ठरूप कुछ कठोर, अस्थिरूप कठोर तथा पाषाणरूप महाकठोर । इनका वध शुभ या अशुभ दोनों प्रकारके भावोमेंसे होता है । जब शुभोपयोगरूप विशुद्ध भाव होते हैं तब इनका अनुभाग कोमल पडता है और जब अशुभोपयोगरूप सक्लेशभाव होते हे तब इनका यथायोग्य कठोर पडता है । साता वेदनीय, शुभ नाम, शुभ आयु या उच्च गोत्र पुण्य प्रकृतिये है । इनका अनुभाग जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ठ गुड, खाउ, शर्करा तथा अमृतके समान जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट जातिके धर्मानुरागरूप विशुद्ध परिणामोके अनुसार पडेगा । असाता वेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु तथा नीच गोत्र पाप प्रकृतियें है । इनका अनुभाग जघन्य, मध्यम, उकुठ नीम, काजीर, विष, हालाहलके समान जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट हिंसादिरूप सक्लेश परिणामोके अनुसार पडता है । इस तरह कम या अधिक फलदान शक्ति भी कर्म वर्गणाओमे स्वय जीवके भावका निमित्त पाकर परिणमन कर जाती है। ज्ञानी पुरुषको उचित है कि इन कर्मोंको व इनके तीव्र या मद सुख दुखरूप फलको अपने शुद्धोपयोग भावसे भिन्न अनुभव करे और साम्यभाक्मे तिष्ठे जिससे नवीन कर्मोंका वध न हो ॥ ९९ ॥ उत्थानिका- आगे कहते है कि अभेदनयसे बंधके कारण - भूत रागादिभावोमे परिणमन करनेवाला आत्मा ही बंधके नामसे कहा जाता है ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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