SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२] श्रीप्रवचनसारटोका। इस अनादि प्रवाहरूप जगतमें सदा ही तीर्थकर या केवली होते रहे हैं इसलिये उनका उपदेश भी होता रहा है। तथा सदासे ही गणधरोंने उसकी द्वादशांगरूप रचना करके उसे आगमरूप प्रगट किया है इसलिये प्रवाह या संतानकी अपेक्षा भगवानका उपदेश तथा शास्त्र दोनो अनादि है । इन दोनोंसे यही बात मान्य है, अतएव यह जटल सिद्धांत है कि द्रव्य स्वभाव सिद्धअनादि अनन्त है तैसे ही उसकी अभिन्न सत्ता भी स्वभावसिह सदा कालसे है व सदाकाल बनी रहेगी। यही यथार्थ वस्तुका स्वभाव है। जो इस तत्वको नही समझता है वह पर समयरूप मिथ्यादृष्टी अज्ञानी है । उसको अपनी आत्माकी सत्ताकी नित्यताका कभी श्रद्धान नहीं होगा तब वह आत्मा व उसका परलोक न मानता हुआ इस शरीरकी अवस्थाको ही आपा मानेगा और शरीरसुख हीमे लिप्त रहेगा । यही अज्ञान चेष्टा है। तात्पर्य यह है कि अपने आत्माको सदासे ही निश्चय नयसे शुद्ध परमात्माके समान वीतरागी तथा आनंदमई और ज्ञाता दृष्टा निश्चयकर उसके स्वभावके अनुभवमे लय होकर आत्माको कर्मबंधनसे छुडाना चाहिये और सुख शांतिका लाभ करना चाहिये ||७|| उत्थानिका-आगे कहते है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होते हुए सत्ता ही द्रव्य स्वरूप है अथवा द्रव्य सत् स्वरूप है सदवट्टिय सहावे, दबं दन्चस्स जो हि परिणामो। अत्थेसु सो सहावो, ठिदिसंभवणाससंवद्धो ॥ ८॥ सदवस्थितं स्वभावे द्रव्य द्रव्यस्य यो हि परिण मः । अर्येषु स स्वभावः स्थितसभवनाशरूबद्धः ॥ ८ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy