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________________ द्वितीय खंड | [ १७ ret सहावसिद्धो सोह अना विपरिक्को । अण्णो ण मज्झ सरण सरगं सो एक्क परमाना || ३५ ॥ अरस अरुव अगधो अग्वावाही अणतणाणमओ । अणो ण मज्झ सरण सरण सो एकक परमप्पा ॥ ३६ ॥ नागाउ जो ण भिष्णो विभिष्णो सहावसुक्खमओ । अण्णो ण मज्झ सरण सरण सो एक्क परमया ॥ ४३ ॥ सुहअभाव वेगओ सुद्धसहावेण तम्मय पत्तो । अण्णो ण मज्झ सरण सरण सो एक्क परमना ॥ ४५ ॥ भावार्थ - मै एक स्वभावसे सिद्ध रूप, विकल्प रहित आत्मा हू, रस, रूप, गंध, स्पर्शसे रहित, अव्यावाध तथा अनतज्ञानमई हू, मै अपने ज्ञानादि गुणोसे भिन्न नहीं है किंतु अन्य विकल्पोसे भिन्न हूं तथा स्वभावमे ही आनदमई हू मै शुभ अशुभ भावोसे दूर हू, तथा शुद्ध स्वभावसे तन्मय हू । वही शुद्ध व परम आत्मा मेरे लिये शरण है, अन्य कोई शरण नहीं है । वास्तवमे खसमय ही संतोषप्रद है ऐसा जानकर इसी भावका ग्रहण कार्यकारी समझना चाहिये || ३ ॥ । उत्थानिमा- आगे द्रव्यका लक्षण सत्ता आदि तीनरूप है ऐसा सूचित करते है - अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुवत्तसंवद्ध । गुणवं च सपजाय, जत्त दव्यत्ति बुच्चति ॥४॥ अपरित्यक्तत्वभावेनोत्पादव्ययवत्वसबद्धम् । गुणवच्च सपर्याय यत्तद्द्रव्यमिति ब्रुवति ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ - जो नहीं छोडेहुए अपने अस्तित्व रवभावसे
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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