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श्रीप्रवचनसारटीका।
वे निज आत्मस्वभावमे आपा माननेवाले सम्यग्डप्टी स्वसमय रूप हैं।
समयसारजीमे भी श्री कुंदकुंद महाराजने यही आशय सूचित किया है
जीवो चरित्तदसणणाणष्ठिर त हि ससमय जाणे ।
पुग्गल म्मुवदे सहद च त जाग परसमय ॥ २ ॥ भावार्थ-जो जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमे तिष्ठनेवाला है उसे स्वसमय रूप जानो तथा पुद्गल कर्मके उदयसे होनेवाली अनेक अवस्थाओको लिये हुए नामोमे जो जीव तिष्ठता है उसे परसमयरूप जानो।
श्री देवसेनाचार्यने श्री तत्वसारमे कहा है - देहमुहे पडिबद्धो जे णय सो तेण लहइ गहु सुद्ध । तच्च वियारर हेय णिच्च चिय आयमाणो हु ॥ ४७ ॥ मुक्खो विणासरुवो चेयणपरिवजिओ सयादेहो । तस्स ममत्ति कुणतो बहिरपा होइ को जीवो ॥ ४८ ॥
भावार्थ-जो शरीरके सुखोमे उलझा हुआ होता है वह चित्तमें ध्यान करता हुआ भी नित्य, शुद्ध, निर्विकल्प आत्मतत्वको नहीं प्राप्त करता है, यह शरीर सदा ही अज्ञानी, विनाशरूप, व अचेतन है। जो जीव इससे ममत्व करते हैं वे वहिरात्मा मिथ्यावष्टि है।
सम्यग्दृष्टी अपने आपको कैसा समझता है इस विषयमे बल्लाणालोयणामे श्री अजित ब्रह्मचारीने इस तरह लिखा है