SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५०] श्रीप्रवचनसारटोका । होताहुभा व्यवहारमें मोहितचित्त होकर शरीर तथा परद्रव्योंमें मैं शरीररूप हूं तथा यह धन आदि परद्रव्य मेरा है ऐसे ममत्वभावको नहीं छोड़ता है वह पुरुष जीवन मरण, लाम अलाम, सुख -दुःख, शत्रु मित्र, निन्दा प्रशंसा आदिमें परम समताभांवरूप यतिपनेके चारित्रको दूरसे ही छोडकर उस चारित्रसे उल्टे मियामों में लग जाता है । मिथ्याचारित्रसे संसारमें भ्रमण करता है। इससे सिद्ध हुआ कि अशुद्धनयसे' अशुदात्माका लाभ होता है। भावार्थ-अशुद्ध नय अशुद्ध पदार्थको ग्रहण करने वाली है। जो कोई पुरुष शुद्ध' निश्चयनयको न पाकर' अशुहनयसे वर्तन करता है अर्थात् शरीरमें अहंबुद्धि करके यह मानता है मैं पुरुष हू, स्त्रीहू, नपुसक हू, गोरा हूं, काला हू, ब्राह्मण हू, क्षत्री हूं, वैश्य हू, शूद्र हूं, राना हूं, सेठ हूदीन हूं, दलिद्री हूं इत्यादि तथा ममकार भावसे ऐसी मान्यता करता है कि यह मेरा धन है, गृह है, स्त्री है, पुत्र है, देश है, सेना है, इत्यादि । वह राग, द्वेष, मोहसे लिप्त होकर यदि मुनिपदमें भी है तौभी भाव मुनिपदसे भृष्ट होकर मिथ्यादृष्टी होता हुआ पाप बांध संसार में ही भ्रमण करता है। जो जैसा भावे तैसा फल पावे यह नियम है । मैं अशुद्ध हूं या अशुद्ध भावमें ही वर्तन करता हूं ऐसा श्रद्धान ज्ञानचारित्र रखता हुआ निरन्तर ? तुम ही होता हुआ अपने आत्माको अशुद्ध ही “पाता रहेगा-उसका कभी भी शुद्धात्माका लाभ नहीं होगा। श्री तत्वसारमें 'श्री देवसेनाचार्य कहते हैं लहइ ण भन्यो मोक्ख जावइ परदव्यवावड़ो चित्तो । उगतव पि कुणतो शुद्ध भावे लहु लहइ ॥ ३३ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy