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________________ द्विताय खंड। [३४९ त्माकी प्राप्तिकी भावनाके फलसे दर्शनमोहकी गांठ नष्ट होनाती है तैसे ही चारित्रमोहकी गाठ नष्ट होती है व क्रमसे दोनों का नाश होता है ऐसे कथनकी मुख्यतासे 'जो एव जाणित्ता' इत्यादि दूसरे स्थलमे गाथाए तीन है । फिर केवलीके ध्यानका उपचार है ऐसा कहते हुए “णिहदघणघाइकम्मा" इत्यादि तीसरे स्थलमें गाथाएं.. दो है । फिर दर्शनाधिकारके संकोचकी प्रधानतासे " एव जिणा निणिदा" इत्यादि चौथे स्थलमें गाथाएं दो है । पश्चात् “ दसणसंसुहाण " इत्यादि नमस्कार गाथा है । इसतरह बारह गाथाओंसे चार स्थलोमे विशेष अन्तराधिकारमे समुदाय पातनिका है। उत्थानिका-आगे अशुहनयसे अशुद्ध आत्माका लाभ ही होता है ऐसा उपदेश करते है - ण जहदि जो दु मत्ति अहं ममेदत्ति देहदविणेसु । सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होइ उम्मग्गं ॥ १०२ ॥ न जहाति यस्तु ममतामह ममेदमिति देहद्रविणेषु । स श्रामण्य त्पत्य प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गम् ॥ १०२ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ - (जो दु) जो कोई (देहदविणेसु) हारीर तथा धनादिमे (अह ममेदत्ति ) मै उन रूप हूं व वे मेरे हैं ऐसे (ममत्ति) ममत्वको (ण जहदि ) नहीं छोड़ता है। (सो) वह ( सामण्ण) मुनिपना (चत्ता) छोडकर ( उम्मग्गं पडिवण्णो होइ) उन्मार्गको प्राप्त होनाता है। विशेषाथ-जो कोई ममकार अहकार आदि सर्व विभावोसे रहित सर्व प्रकार निर्मल देवलज्ञानादि अनन्तगुणस्वरूप निन आत्मपदार्थका निश्चल अनुभवरूप निश्चयनयके विषयसे रहित
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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