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द्वितीय खंड |
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भावार्थ- जबतक चित्त शरीरादि परद्रव्यमें बावला हो रहा. है तबतक भारी तपको भी करता हुआ भव्यजीव मोक्ष नहीं पा सक्ता, परन्तु शुद्धभावों में वर्तन करनेसे शीघ्र ही मोक्षको पासक्ता है।
इसलिये ममकार अहंकार आदि भावोंको त्यागकर शुद्ध वीतराग साम्यभावमें वर्तना कार्य री है ॥ १०२ ॥ उत्थानिका- आगे कहते है कि शुद्धनयसे शुद्धात्माका लाम होता है :
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पाहं - होमि परेसि ण मे इदि जो भायदि भाणे से
परे सत्ति णाणमहमेको । अप्पाणं हवदि भादा ॥ १०३ ॥
नाह भवामि परेषा न मे परे सति ज्ञानमहमेकः ।
इति यो ध्यायति ध्यानेन स आत्मान भवति ध्याता ॥ १०३ अन्वय सहित सामान्यार्थः - ( अह परेसि न होमि ) मैं दूसरोंका नहीं हू ( परे मे ण सन्ति) दूसरे पदार्थ मेरे नहीं है (अहं एको णाण) मैं अकेला ज्ञानमई ह (इदि) ऐसा (जो झाणे झायदि) जो ध्यान में ध्याता है ( सो अपाण झादा हवदि ) वह आत्माको ध्यानेवाला होता है ।
विशेषार्थ :- सर्व ही चेतन अचेतन परद्रव्योमे अपने स्वामीपके सम्बन्धको मन वचनकाय व कृत कारित अनुमोदनासे अपने स्वात्मानुभव लक्षण निश्चयनयके बलकेद्वारा पहले ही दूर करके मै सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानमई हूं तथा सर्व भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्मसे रहित एक हूं इस तरह जो कोई निज शुद्ध आत्माके ध्यानमें तिष्टकर चिन्तन करता है वह चिदानंदमई। एक स्वभावरूप परमात्मा का ध्यानेवाला होता है । इस तरहके परमात्मध्यानसे वह