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द्वितीय खंड।
[२१३ किया गया तैसा ही सर्व समयोमें जानना योग्य है । यहां यह तात्पर्य निकालना चाहिये कि यद्यपि भूतकालके अनन्त समयोंमें दुर्लम और सब तरहसे ग्रहण करने योग्य सिद्धगतिका काललब्धिरूपसे बाहरी सहकारीकारण काल है तथापि निश्चय नयसे अपने ही शुद्ध आत्माके तत्वका सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र तथा सर्व परद्रव्यकी इच्छाका निरोधमई लक्षणरूप तपश्चरण इस तरह यह जो निश्चय चार प्रकार आराधना यही उपादान कारण है, काल उपादान कारण नहीं है इससे कालद्रव्य त्यागने योग्य है यह भावार्थ है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने स्पष्ट रूपसे कह दिया है कि काल द्रव्य नित्य है । एक कालाणु एक स्वतंत्र काल द्रव्य है। । इस तरह असंख्यात कालाणु असंख्यात काल द्रव्य है । द्रव्य उसे
ही कहते हैं जो सदा ही प्रवाह रूपसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वभाचको रखता है । यह लक्षण भले प्रकार काल द्रव्यमें सिद्ध किया गया । काल द्रव्यका वर्तना गुण है उस वर्तना गुणकी पर्याय समय है। पर्याय एक समय मात्र रहती है । हरएक समयमें जब एक पर्याय पैदा होती है तव पुरानीको नाशकर ही पैदा होती है
और पर्यायोका उत्पाद व्यय विना किसी आधार द्रव्यके नहीं हो सक्ता है। सुवर्णके रहते हुए ही उसकी ककणकी अवस्था बदलकर कुंटलरूप होसती है । इसी तरह कालाणु सदा ध्रुव बना रहता है । उसीमे समयपर्याय हर समय नई नई होती रहती है। इससे यह अच्छी तरह निश्चित है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप काल द्रव्य है।