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श्रीप्रवचनसारटीका।
ऐसे नित्य काल द्रव्यको स्वीकारकरके मात्र व्यवहार ही काल है निश्चय काल द्रव्य नहीं है इस वपनाको त्याग देना चाहिये । कोई स्वभाव या अवस्था क्सिी स्वभाववान या अवस्थावानके विना नहीं होसक्ते । समय नामका व्यवहार काल जब प्रसिद्ध है और वह क्षण क्षण नष्ट होनेवाला है तब वह अवश्य किसी द्रव्यकी पर्याय है ऐसा मानना होगा। जिसकी समयपर्याय है उस काल द्रव्यको अवश्य नित्य मानना पड़ेगा। इस तरह काल द्रव्यके कारण अनन्तानन्त समय वीत गए, अभीतक हमको सिद्ध समान शुद्ध आत्माका निज स्वभाव प्राप्त नहीं हुआ इसलिये हमको अपने इस मानव-जन्मके थोड़ेसे समयोको वहुत अमूल्य समझकर उनका उपयोग निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप रूपी आत्मानुभव या आत्मध्यानमे लगाकर कर्मके बंधनोंको काटना और स्वतंत्र होनेका यत्न करना योग्य है ॥५३॥
उत्थानिका-आगे उत्पाद व्यय ध्रौव्यमई अस्तित्त्वमें ठहरे । हुए कालद्रव्यके एक प्रदेशपना स्थापित करते हैं
जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णाहूँ। सुण्णं जाण तमत्थं अत्यंतरभूदमत्थीदो ॥ ५४ ॥ यस्य न संति प्रदेशाः प्रदेशमात्रं वा तत्त्वतो ज्ञातुम् । शून्यं जान हि तमथमर्थान्तरभूतमस्तित्वात् ॥ ५४ ॥
अन्वय सहित मामान्यार्थः-(जस्स पदेसा ण संति ) जिस किसी पदार्थके बहुप्रदेश नही है (व पदेसमत्तं तच्चदो णा९) अथवा जो वस्तु अपने स्वरूपसे एक प्रदेश मात्र भी नहीं जानी जाती है (तमत्थं सुण्णं जाण) उस पदार्थको शून्य जानो क्योंकि