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________________ २१२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । है । यही बात काल द्रव्य में है । वह कालद्रव्य रूप कालाणु अपने भीतर होनेवाली अनंत समयपर्यायोंको शक्ति रूपसे रखता है। उनहीमे से एक क्षणमे एक समयपर्याय प्रगट होती है अन्य सब अप्रगट रहती हैं। श्री तत्त्वार्थसूत्रमें भी कहा है कालश्च (५-३९), सो अनन्त समयः (५-४० ) । भाव यही है कि काल द्रव्य है सो अनन्त समयोंको रखता है । सारांश यही निकलता है कि कालद्रव्यकी सत्ता सिद्ध है । विना कालके अस्तित्वके समय आकाश फूलके समान अवस्तु है । जिस समयको व्यवहारकाल कहते हैं वह समय कालद्रव्यकी पर्याय है यही भले प्रकार सिद्ध है ||१२|| उत्थानिका- आगे यह निश्चय करते हैं कि जैसे पूर्वमे कहे प्रमाण एक वमान समयमे काल द्रव्यका उत्पाद व्यय धौन्य सिद्ध किया गया तैसे ही सर्व समयोमें होता है 1 एकम्मि संति समये संभवठिदिणाससण्णिदा अट्ठा । समयस्स सव्वकालं एस हि कालाणुसन्भावो ॥ ५३ ॥ एकस्मिन्सन्ति समये सभवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थ. । समयस्य सर्वकाल एष हि कालागुसद्भावः ॥ ५३ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( एकम्मि समये ) एक समयमें ( समयस ) कालद्रव्यके भीतर ( सभवठिदिणासस णिदा अट्टा ) उत्पाद, व्यय और प्रौव्य नामके स्वभाव ( सति ) हैं (एस हि ) निश्चय करके ऐमा ही (कालाणुसम्भावो) कालाणु द्रव्यका स्वभाव (सव्वकाल) सदाकाल रहता है । विशेषार्थ. - जैसे पहले अंगुली द्रव्य आदिके दृष्टातसे एक ' समयमे ही उत्पाद और व्ययका आधारभूत होनेसे एक विवक्षित वर्तमान समय में ही काल द्रव्यके उत्पाद व्यय धौव्यपना स्थापित X)
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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