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द्वितीय खंड । [१२९ तम्हा दु णत्थि कोई, सहावसमवहिदोत्ति संसारे । संसारो पुण किरिया संसरमाणंस्स व्वस्स ॥ २६ ॥ तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे । संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रव्यस्य ॥ २९ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(तम्हा दु) इसी कारणसे (संसारे) इस संसारमें (कोई सहावसमवट्ठिदोत्ति णत्थि) कोई वस्तु स्वभावसे थिर नहीं है। (पुण) तथा ( संसरमाणस्स दव्वस्स ) भ्रमण करते हुए जीव द्रव्यकी (क्रिया) क्रिया (संसारो) संसार है।
विशेषार्थ:-जैसा पहले कह चुके हैं कि मनुप्यादि पर्याय नाशवन्त हैं इसी कारणसे ही यह बात जानी जाती है कि जैसे परमानन्दमई एक लक्षणधारी परम चैतन्यके चमत्कारमे परिणमन करता हुआ शुद्धात्माका स्वभाव थिर है, वैसा नित्य कोई भी जीव पदार्थ इस संसार रहित शुद्धात्मासे विपरीत ससारमे नित्य नहीं है। तथा विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावके धारी मुक्तात्मासे विलक्षण संसारमें भ्रमण करते हुए इस संसारी जीवकी जो क्रिया रहित
और विकल्प रहित शुद्वात्माकी परिणतिसे विरुद्ध मनुप्यादि रूप विभाव पर्यायमें परिणमन रूप क्रिया है सो ही संसारका स्वरूप है। इससे यह सिद्ध हुआ कि मनुप्यादि पर्यायस्वरूप संसार ही जगतके नाशमें कारण है।
भावार्थ-पहले कह चुके है कि इस जगतमें द्रव्य दृष्टि से पदार्थ नित्य है परतु पर्यायोकी अपेक्षा अनित्य है । इसी वातसे यह फल निकाला जाता है कि इस चतुर्गतिमें भ्रमण रूप संसारमें कोई भी जीव अपने स्वभावमे स्थिर नहीं है। वास्तवमे संसार